________________ मप्तमः सर्गः 223 ( कर्तरि ) / एतदीय: एतत् + छ. छ को ईय / जैत्रः जेता एवेति जेतृ + अण् ( स्वार्थे ) / अनुवाद–वीर रतिपति ( काम ) कमर ललाट और शिर पर पृथक-पृथक स्थित इस ( दमयन्ती) की रोमावली, भौहें और पुष्पों के रूप में क्रमशः अपनी मौर्वी. धनुष और बाणों द्वारा विजयी बना हुआ है यह आश्चर्य की बात है / / 86 // टिप्पणी-दमयन्ती पर सवार हुआ वीर कामदेव उसकी रोमावली को अपने धनुष की डोरी भौंहों को धनुष और शिर पर बालों में गुथे पुष्पों को अपने बाण बनाकर जगत् की विजय कर रहा है। वैसे तो धनुष की डोरी, धनुष और बाण इकट्ठे होकर ही आयुध बनते हैं और संयुक्त होकर ही मार भी करते हैं, लेकिन यहाँ देखो तो अलग-अलग रहकर वे काम कर रहे हैं - यह बड़ी विचित्र बात है। भाव यह निकला कि दमयन्ती की रोमावली, भौंह और सिर-गुथे पुष्पों को देख काम उद्दीप्त हो उठता है। रोमावली आदि पर मौ:स्वादि का आरोप होने से रूपक और उनका यथाक्रम अन्वय होने से यथासंख्य अलंकार है। मल्लिनाथ के अनुसार यहाँ विरूप घटना का वर्णन होने से विषमालंकार है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। पुष्पाणि बाणाः कुचमण्डनानि भ्रवी धनुर्भालमलं करिष्णु / रोपावली मध्यविभूषणं ज्या तथापि जेता रतिजानिरेतैः // 87 // अन्दयः--कुचमण्डनानि पुष्पाणि बाणाः ध्रुवौ भालम् अलंकरिष्णु धनुः, मध्यविभूषणम् रोमावली ज्या ( अस्ति ), तथापि रति जानिः एतैः जेता। टोका-इस श्लोक की पिछले श्लोक की तरह ही व्याख्या समझ लें / नयी बात कोई नहीं। टिप्पणी- इस श्लोक को नारायण ने मूल में दे रखा है किन्तु वास्तव में देखा जाय, तो यह पूर्व श्लोक का ही रूपान्तर लगता है ! इसी कारण बहुत से टीकाकार इस श्लोक को मूल में देते ही नहीं हैं। मूल-श्लोक मानने में स्पष्ट पुनरुक्ति दोष है। अस्याः खलु ग्रन्थिनिबद्धकेशमल्लोकदम्बप्रतिबिम्बवेषात् / स्म'प्रशस्ती रजताक्षरेयं पृष्ठस्थलीहाटकपट्टिकायाम् / / 88 //