________________ सप्तमः सगः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) अमुम् पुरोदृश्यमानम् अस्याः दमयन्त्याः मुखम् आननम् एव इन्दुम् चन्द्रम् ( कमंधा० ) एकश्चासौ शेषश्च तम् ( कर्मधा० ) अस्थापयत् स्थापितवान् किम् ? अमावास्या-निशासु प्रतिमासं चन्द्रस्य क्षयद्-बिम्बानि अनुत्तमानीति पश्यन् विनाशयञ्च ब्रह्मा अन्ते तेषां स्थाने उत्तमं सुन्दरतमञ्च दमयन्तीमुखचन्द्र स्थापयतीति भावः // 59 // व्याकरण-विधिः विदधाति सृष्टिमिति वि + Vधा + किः ( कर्तरि ) / मासि मासि मास शब्द को मास् आदेश और वीप्सा में द्वित्व / लोपं लोपम् Vलुप् + णमुल द्वित्व ( आभीक्ष्ण्य में ) / भङ गुर भज्यते इति मङ्ग् + घुरच् ( कर्मकर्तरि ) / अस्थापयत् /स्था + णिच् + लङ् पुगागम / अनुवाद–ब्रह्मा प्रतिमास अमावास्या की रातों में चन्द्रमा के सैकड़ों बिम्बों-मण्डलों को बार-बार नष्ट करके स्थिर सौन्दर्य वाले इस ( दमयन्ती) के मुख चन्द्रमा को एकमात्र शेष रखता है क्या ? // 59 // टिप्पणी ब्रह्मा भी एक कलाकार हैं, जो अन्य कलाकारों की तरह पहले बने रद्दी-मद्दी मॉडलों को तो फेंक देते हैं और बाद में जो सर्वथा निर्दोष मॉडल बनता है, उसे रख लेते हैं। यही कल्पना कवि अमावास्या की रात्रियों में क्षीयमाण शोभा वाले चन्द्र-बिम्बों के सम्बन्ध में करता है। आकाश के चन्द्र-बिम्ब क्षयशील कान्ति वाले होने से ब्रह्मा उन्हें हटा ही देता है और उनके स्थान में स्थिर कान्ति वाला दमयन्ती का मुख चन्द्र धर देता है। भाव यह निकला कि आकाशस्थ चन्द्र दमयन्ती के मुख-चन्द्र की बराबरी भला क्या करेगा जो सदा एक-सी कान्ति में नहीं रहता। यहाँ कल्पनामें उत्प्रेक्षा है, जो किम् शब्द द्वारा वाच्य है / मुख में चन्द्र से अधिकता बताने में व्यतिरेक है। विद्याधर अतिशयोक्ति भी कह रहे हैं / 'विधो विधि' 'लोपं लोपम्' 'मासि मासि' और कम किम' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। एकशेषम्-हमारे विचार से कविका यहाँ पाणिनि के 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तों (1 / 2 / 64)' इस सूत्र की ओर भी संकेत है अर्थात् एक विभक्ति में जैसे प्रथम और द्विवचन का रूप नष्ट करके बहुवचन में एक रूप शेष रख दिया जाता है, उसी तरह बन्य क्षीयमाण चन्द्रों को नष्ट करके ब्रह्मा एकमात्र दमयन्ती का मुखचन्द्र शेष रखता है। प्रतीयमान व्याकरण-सम्बन्धी इस अप्रस्तुत अर्थ को हम उपमाध्वनि ही कहेंगे /