________________ सप्तमः सर्गः व्याकरण-वक्र वङ्कते इति/वङ्क ( कौटिल्ये ) + रन (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / ओधः /वह + घञ् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / निष्यन्व: नि + स्यन्द + घञ् ( भावे) स को वि उपसर्ग के कारण ष / प्रवाहः प्र+/ वह + घम् / श्रवस् श्रूयतेऽनेनेति / श्रु + अस् ( करणे) प्रणाली प्रकृष्टा नाली (प्रादि तत्पु० ) न को ण / कर्ण: कर्ण्यते ( आकय॑ते ) अनेनेति / कर्णं + अप (करणे)। अनुवाद-अतिवक्र ( बड़ा दुर्बोध, टेढ़ामेड़ा ) शास्त्र-समूह का सार भूत अमृत प्रवाह जिस मार्ग से इस ( दमयन्ती) के भीतर प्रविष्ट हुआ, वह इस ( दमयन्ती ) के पत्तों-जैसे दो कानों के भीतर नाली-जैसी रेखा ही है, जो कर्णच्छिद्रों की ओर जाती है / 62 // टिमणी-दमयन्ती बड़ी विदूषी है और सकल शास्त्रों का कर्म जाने हये है / इस तथ्य का कवि रूपक से प्रतिपादन कर रहा है। शास्त्रों का सार बना अमृत-प्रवाह ! कान के भीतर की टेढ़ी-मेड़ी रेखायें बनी नालियाँ, जिनसे होकर टेढ़ामेड़ा बना हुआ अमृत-प्रवाह भीतर चला गया। हम देखते हैं कि यदि नाली टेढ़ी-मेड़ी हो तो पानी भी टेडामेड़ा हो जाता है / प्रवाह के टेढ़ेमेड़े से अभिप्रेत यहाँ शास्त्र-सार की दुर्बोधता है। नारायण पत्र-युगे' शब्द से यहाँ कानों में पहनी बालियों का अर्थ लेते हैं जिनकी टेढ़ीमेड़ी रेखाओं से सुधा-प्रवाह भीतर जाता है / यह हमें कुछ जंचता नहीं है, क्योंकि पत्र का अर्थ ताटङ्क ( बालियाँ) नहीं होता, दूसरे कवि कर्णों के वर्णन में उनकी भीतरी बनावट बता रहा है / अगले श्लोक में वह बाहरी बनावट बतायेगा। हमारे विचार से यहाँ रूपको. त्थापित उत्प्रेक्षा है। मल्लिनाथ भी उत्प्रेक्षा ही कह रहे हैं / किन्तु विद्याघर के विचार से 'अत्रापह्नत्युपमालंकारी'। अपह्नव यहाँ हमें नहीं दीख रहा है / उपमा 'श्रवः पत्रयुगे' में स्पष्ट है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्याः श्रुती दध्रतरर्धमर्धम् / कर्णान्तरुत्कीर्णगभीर रेखः किं तस्य संख्यैव नवा नवाङ्कः // 66 // अन्वयः-अस्याः श्रुती अष्टादश विद्याः संविभज्य यत् अर्धम् अर्धम् दध्रतुः तस्य कर्णान्तः उत्कीर्णगभीररेखः नवाङ्कः नवा संख्या एव न किम् ? टोका-अस्याः दमयन्त्याः श्रुती कणौँ अष्टादश अष्टाभिरधिका दश, अष्टादशसंख्यका इत्यर्थः विद्याः संविभज्य द्वयोः भागयोः विभक्ताः कृत्वेत्यर्थः यत्