________________ सप्तमः सर्गः 200 अन्तः इति ( सुपसुपेति समासः ) अप के अ को ईत्व ( 'द्वयन्तरूपसर्गेभ्योऽपईम्' 6 / 3 / 97 ( ऋक-', 'ऋक्-पूः० 5 / 4 / 74 से' समासान्त अकार)। अनुवाद--मुझे आनन्द देनेवाली नर्मदा-रूपी इस ( दमयन्ती ) को दोनों ओर दिखाई पड़ रही सुन्दर दो लता-जैसी भुजायें दो मणालियां हैं क्या ? काम के ताप से अच्छी तरह सूखे जा रहे बाल्यावस्था-रूपी जल वाली इस ( दमयन्ती ) के दो कुच ऊपर उभरे हुए दो द्वीप हैं क्या ? // 73 // टिप्पणी-यहाँ से लेकर कवि अब छः श्लोकों में दमयन्ती के कुचों का वर्णन कर रहा है। नर्मदा और दृश्य शब्दों में श्लेष रखकर कवि दमयन्ती पर नर्मदा नदीत्व उसकी वाहुलता पर मृणालीत्व, बाल्यावस्था पर वारित्व और कुचों पर द्वीपत्व का आरोप करके रूपक का समस्तवस्तुविषयक चित्र खींच कर अन्त में 'किम्' शब्द द्वारा उत्प्रेक्षा में पर्यवसान कर रहा है / 'बाल्य' 'बारः' में ( बवयोरभेदात् ) छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तालं प्रभु स्यादनुकतु मेताबुत्थानसुस्थी पतितं न तावत् / परं च नाश्रित्य तरुं महान्तं कुचौ कृशाङ्गयाः स्वत एव तुङ्गी // 74 // अन्वयः-पतितम् तावत् तालम् उत्थान-सुस्थी एती (कृशाङ्गयाः ) कुची अनुकर्तुम् न प्रभु; परं च महान्तम् तरुम् आश्रित्य (तुङ्ग सत् ) स्वता एव तुङ्गी कृशाङ्गयाः कुची अनुकतुम् न प्रभुः / टीका-पतितम् नीचैः भुवि च्युतम् तावत् वस्तुतः तालम् ( कर्तृ ) एतदाख्यवृक्षविशेषस्य फलम् उत्थाने उद्गमने सुस्थौ स्वस्थी (तृ० तत्पु० ) एतौ पुरो दृश्यमानौ कृशम् तनु अङ्गम् देहः ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाः ( ब० बी० ) दमयन्त्याः कुचौ स्तनौ. अनुकर्तुम् साम्यं वोढुम् न प्रभु समर्थम् / तालम् पतितम् कुचौ तु न पतितौ प्रत्युत उच्चैःस्थिती इति पतितापतितयोः कथं नाम साम्यं स्यादिति भावः; परम् अन्यत् अपतितमित्यर्थः तालं च महान्तम् विशालम् तरुम् वृक्षम् आश्रित्य वृक्षस्य आश्रयं गृहीत्वा स्थितं सत् स्वतः स्वभावतः एव न तु पराश्रयणेन तुङ्गो उच्ची कृशाङ्गयाः कुची अनुकर्तुम् न प्रमु; पराश्रयणेनोच्चस्य तालस्य स्वयमेव चोच्चेन कुचेन कथं नाम साम्यं स्यादिति भावः 174 / / ___ व्याकरण-उत्थानम् उत् + स्था + ल्युट ( भावे ) स को त / सुस्थौ सु = सुष्ठ तिष्ठतः इति सु + /स्था + क / प्रभु प्रभवतीति प्र +भू + ड /