________________ 232 . नैषधीयचरिते अनुवाद-निश्शङ्क हो कमलों को संकुचित ( बन्द, पराजित) किये यह मुख-रूपी चन्द्रबिम्ब इस ( दमयन्ती ) में उदय हो गया है, तथापि कुच-रूपी चक्रवाक पक्षियों का जोड़ा जरा भी विछड़ने में नहीं आ रहा है-आश्चर्य है / 77 // टिप्पणी-रात को चन्द्रोदय होने पर चकवा-चकइयों का जोड़ा एक-दूसरे से बिलकुल पृथक हो जाया करता है, ऐसा प्रकृति का विधान है, किन्तु यहाँ कुचचक्रवाक-युगल पृथक् होता ही नहीं। दमयन्ती के कुचयुगल एक-दूसरे से खूब सटा हुआ है। बीच में अन्तराल है ही नहीं। पृथक् हों, तो कैसे हों / भाव यह निकला कि दमयन्ती के कुच कमल-कुडमल और चक्रवाक के आकार के हैं और अच्छी तरह सटे हुए हैं। यहाँ मुख पर चन्द्रत्वारोप में रूपक और चन्द्रोदय-रूप विछड़ने का कारण होने पर भी कोकों का विछड़ना कार्य न होने से विशेषोक्ति है / 'शङ्क' 'पङ्क' और 'कोक' 'स्तोक' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आभ्यां कुचाभ्यामिभकुम्भयोः श्रीरादीयतेऽसावनयोन ताभ्याम् / भयेन गोपायितमौक्तिको तो प्रव्यक्तमुक्ताभरणाविमो यत् // 78 // अन्वयः-आभ्याम् कुचाभ्याम् इभ-कुम्भयोः श्रीः आदीयते, ताभ्याम् अनयोः न ( आदीयते , यत् तो भयेन गोपायित मौक्तिको, इमो ( तु) प्रव्यक्तमुक्ताभरणी ( स्तः)। टीका-आभ्याम् एताभ्यां प्रत्यक्षदृश्यमानाभ्याम् कुचाभ्याम् स्तनाभ्याम् इभस्य हस्तिनः कुम्भयो: गण्डस्थलयो श्रीः शोभा अथ च सम्पत् बावीयते गृह्यते, ताभ्याम् इभकुम्भाभ्याम् अनयोः कुचयोः श्री: न आदीयते यत् यतः तो इभकुम्भी भयेन कुचाद् भीत्या गोपायितानि निहनुतानि मौक्तिकानि मुक्ताफलानि ( कर्मधा० ) याभ्यामिति तथाभूतौ (ब० वी० ) स्तः इति शेषः, इमौ एतो कुचौ तु प्रव्यक्तं प्रकटितम् मुक्तारूपम् आभरणं भूषणं याभ्याम् तथाभूती स्तः / दमयन्तीकुचद्वयेन करिकुम्भस्थलयोः श्रीः अपहृता, अत एष मुक्तारूपाम् अवशिष्टश्रियम् ते मा तावत् तत् एतामपि हरेत् इति भयेन अन्तर्निगृहतः, कुषद्वयं तु स्वां श्रियम् एतत्सकाशात् गृहीतां श्रियमपि च प्रत्यक्षं दधाति इति भाषः // 78 // व्याकरण-श्री: इसके लिए पीछे श्लोक 38 देखिए / गोपायित /गुप् +