________________ सप्तमः सर्गः 195 (प० तत्पु० ) न अङ्गीकृतः स्वीकृतः प्राप्त इत्यर्थः आयासः श्रमः ( कर्मधा० ) तस्य ततिः परम्परा ( 10 तत्पु० ) येन तथाभूतः (ब० वी० ) सन् एकाकी केवलः पाशः ( कर्मघा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) वरुणम् जलाधिष्ठातृदेवम् विजिग्ये विजितवान् इति अहं मन्ये जाने / एकपाशो वरुणः पाशद्वयधारिणा कामेन सौकर्येण जितः इति भावः // 64 // व्याकरण-छिदुरेण छिद्यते इति /छिद् + कुरच् ( कर्मकर्तरि ) / द्वयम् द्वौ अवयवी यत्रेति द्वि+ तयप् , तयप् को विकल्प से अयच् / एकाकिन् एक + आकिनच् / पाशः पाश्यते ( बध्यते ) अनेनेति /पश् + णिच् + घञ् ( करणे ) / विजिग्ये वि + जि + लिट वि उपसर्ग होने से आत्मने / अनुवाद-कामदेव कर्णलतामय दो दृढ़ पाशों—पाशरूप शस्त्रों द्वारा एकमात्र पाशरूपी शस्त्र वाले वरुण को विना कठिनाइयों को अपनाये ही जीत बैठा // 64 // टिप्पणो-यह स्वाभाविक ही है कि अधिक शस्त्र वाला कम शस्त्र वाले को जीत लेता है। भाव यह निकला कि दमयन्ती के सुन्दर कानों को देखकर वरुण कामवशीभूत हो गया और उसका कामुक बन बैठा। यहाँ वरुण की जीत लिये जाने की कल्पना में उत्प्रेक्षा है, जिसका वाचक शब्द 'मन्ये' है / ( 'मन्ये शङ्क, ध्रुवं प्राय उत्प्रेक्षा-वाचका इमे ) विद्याधर उसके मूल में अपह्नति मान रहे हैं, किन्तु अपह्नव-वाचक शब्द यहाँ कोई नहीं है / कर्णलता के बहाने पाशद्वय से यों आर्थ अपह्नव मानना पड़ेगा, लेकिन हमारे विचार से मयट् प्रत्यय यहाँ स्वरूपार्थ में है, इसलिए यह रूपक का विषय है अर्थात् कर्णलता-रूप पाशद्वय से / रूपक से पहले कणौं लते इव यो उपमा है ही। न और ण का अभेद माना जाय तो 'मयेन' 'तरेण' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास और 'तती' 'रती' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / आत्मैव तातस्य चतुर्भुजस्य जातश्चतुर्दोरुचितः स्मरोऽपि / तच्चापयोः कर्णलते भ्रुवोज्यं वंशत्वगंशी चिपिटे किमस्या: // 65 // अन्वयः- चतुर्भुजस्य तातस्य आत्मा एव जातः स्मरः अपि चतुर्दोः उचितः अस्याः भ्र वोः तच्चापयोः चिपिटे कर्णलते वंशस्वगंशी ज्ये किम् ? टीका--चत्बारो भुजाः बाहवो यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) विष्णोः