________________ सप्तमः सर्गः 203 90 ) यक न होकर श्यन् और परस्मैपद हुआ है ( नहीं तो रज्यमान बनता ) / पञ्चकम् पञ्चानां समूह इति पञ्चन् + कन् / हैम हेम्नो विकार इति हेमन् + अण् / हैङ गुल हिङ्गुलेन रक्तमिति हिङ्गुल + अण् / अनुवाद-लाल नाखूनों वाली पाँच अंगुलियों के बहाने सुवर्ण के श्रेष्ठ पुंखों ( पंखों ) तथा सीधे पर्व-भागों वाले ये ( सामने दीख रहे ) कामदेव के पांच बाण प्रिया ( दमयन्ती ) के करपद्मरूपी सिन्दूर-रेंगे तरकश में हैं // 70 // टिप्पणी—यहाँ से लेकर कवि तीन श्लोकों में दमयन्ती के हाथों का वर्णन करता है / यहाँ उसका कर-पद्म कामदेव के बाणों को रखने के लिए तरकश बनाया गया है। काम के बाण पुष्पमय हुआ करते हैं, इसलिए तरकश भी पुष्पमय चाहिए। कर पद्म पुष्प है ही। काम के बाणों की संख्या पाँच है, इसलिए पाँच अंगुलियाँ बाण बन गई। लाल नाखूनें स्वर्ण की नोकों वाले पुंख बन गये / शुद्ध सोना लाल होता ही है / हाथों में लाली है / वह सिन्दूर का रंग बन गई तरकश को हिंगुल ( सिन्दूर ) से रंगते ही हैं। यह कवि की मार्मिक कल्पना है, अतः प्रतीयमान उत्प्रेक्षा है जिसके मूल में मिषशब्द-वाच्य अपह्न ति काम कर रही है। भाव यह निकला कि दमयन्ती का हाथ और अंगुलियाँ देखते ही काम भड़क उठता है / अस्याः करस्पर्धनगर्धनद्धि लत्वमापत् खलु पल्लवो यः / भूयोऽपि नामाधरसाम्यगर्वं कुवंन्कथं वास्तु न स प्रवालः / / 71 / अन्वयः-य: पल्लवः अस्याः कर' 'नद्धिः सन् बालत्वम् आपत् खलु, स भूयः अपि अधर-साम्य-गर्वम् कुर्वन् नाम कथम् प्रवाल: न अस्तु / ____टोका-यः पल्लवः किसलयः अस्या दमयन्त्याः करेण हस्तेन सह स्पधनं स्पर्धाम् (तृ० तत्पु० ) गृघ्नाति अभिकाङ्क्षतीति गर्धना ( उपपद तत्पु. ) ऋद्धिः शोभा ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतः ( ब० वी० ) अथवा स्पर्धने गधनस्य अभिलाषस्य ऋद्धिः आधिक्यं यस्य तथाभूतः सन् बालत्वम् शिशुत्वम् प्रत्यग्रत्वमित्यर्थः प्रत्यग्रपल्लवस्यैव करेण सौकुमार्य रक्तिमसाम्यात् अथ च बालत्वम् मूर्खत्वम् ( 'मूर्खेऽर्भकेऽपि बालः स्यात्' इत्यमरः ) करेण सह स्पर्धेच्छाधिक्येन मूर्खत्वम् आपत् प्राप्नोत् खलु निश्चयेन, करापेक्षया पल्लवस्य अतिहीनत्वात् /