________________ सप्तमः सर्गः नाम कमलानाम् राजानौ इति सरोजराजी ( 10 तत्पु० ) अमुष्य इति अदसीयाम् मुखकमलसम्बन्धिनीमित्यर्थः सेवाम शुश्र षां सुजतः कुरुतः / दमयन्त्याः मुखकमलं निखिलकमलजातस्य सम्राडस्ति, अतएव तन्नेबेन्दीवरराजी तत्सेवां कुरुतः, सम्राट राजभिः सेव्यते एवेति भावः / / 54 / / व्याकरण-अम्भोजम् अनम् अम्भसि, अप्सु जायते इहि अम्भस्, अप + जन् + ड / सम्राजम् सम्यक् राजते इति सम् + / राज् + क्विप् कर्तरि ) सम्राट् / ब्यवत्त वि + Vधा + लुङ / अभिधेयम् अभिधातुं योग्यमिति अभि + Vधा + यत् / अदसीयाम् अदम् + छ, छ को ईय / अनुवाद-विधाता ने इस ( दमयन्ती ) का मुख-कमल निखिल कमलसमूह का मम्राट बनाया; तभी तो नेत्रनामक दो कमल-राज इस ( मुखकमल ) की सेवा कर रहे हैं // 54 / / टिप्पणो - ऐसा लगता है कि ब्रह्मा ने दमयन्ती के मुख को कमल-जगत् का सम्राट बनाया है। यह इस बात से सिद्ध होता है कि कमलों के राजे नेत्र उसकी सेवा-शुश्रूषा कर रहे हैं ! जो राजों द्वारा सेवित होता है वह सम्राट् ही होता है / सम्राट का लक्षण अमरकोष में इस तरह किया गया है-"येनेष्ट राजसूयेन मण्डलस्येश्वरश्च यः / शास्ति यश्चाज्ञया राज्ञः स सम्राट् / " मल्लिनाथ सम्राट् की कल्पना किये जाने से उत्प्रेक्षा है। हम नेत्रसरोजराज में रूपक भा कहेंगे / विद्याधर अतिशयोक्ति और समासोक्ति कह रहे हैं। कारण बता देने से काव्यलिङ्ग तो है ही। 'धत्त' 'धाता', 'रोज' 'राजी' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / दिवारजन्यो रविसोमभीते चन्द्राम्बुज निक्षिपतः स्वलक्ष्मीम् / आस्ये यदास्या न तदा तयोः श्रोरेकत्रियेदं तु कदा न कान्तम् / .54 / / अन्य:--दिवा-रजन्योः रवि-सोमभीते चन्द्राम्बुजे यदा स्वलक्ष्मीम् अस्याः आस्ये निक्षिपतः, तदा तयोः श्रीः न ( भवति ) / इदम् तु एकश्रिया कदा। कान्तम् ? टीका-दिवा दिनं रजनी रात्रिश्च तयोः (सुप्सुपेति समासः) दिने निशि चेत्यर्थ! क्रमशः रविः सूर्यश्च सोमः चन्द्रश्च ( द्वन्द्व ) ताभ्याम् भीते त्रस्ते (पं० तत्पु० )