________________ 178 नैषधीयचरिते दिया। दमयन्ती के मुख में सरस्वती के वास से यह सिद्ध हुआ कि वह बड़ी विदुषी है / यह कवि की कल्पना ही है, इसलिए उत्प्रेक्षा है; आस्य पर इन्दुत्वारोप में रूपक है 'पद्मा' सद्मा' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास, जिते' 'जिता' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / सरस्वती-हम पीछे सर्ग 3 श्लोक 30 में देख आये हैं कि कवि ने सरस्वती को ब्रह्मा की पत्नी कहा है, लेकिन वह यहां उसे विष्णु की पत्नी कह रहा है / सर्ग 11 श्लोक 66 में भी उसने सरस्वती को विष्णुपत्नी के रूप में उल्लिखित किया है। यह एक असंगत बात ही समझिये। इस सम्बन्ध में जैसे कि राजशेखर ने भी कहा है-यह कथा प्रचलित है कि श्रीहर्ष ने अपने नैषधकाव्य को काश्मीर में भारती-पीठ में शुद्धाशुद्ध परीक्षार्थ जब भारती के हाथ में दिया, तो उसने उसे नीचे पटक दिया यह कहकर कि यह अशुद्ध है, क्योंकि तुमने इसमें मुझे विष्णुपत्नी कहा है। इस पर श्रीहर्ष बोले कि एक अवतार में क्या तुमने विष्णु को अपना पति नहीं बनाया था ? पुराणों में भी तुम विष्णुपत्नी के रूप में उल्लिखित हो ही। सचाई से मुकरकर क्यों कुपित होती हो ? कुपित होकर कोई कलंक से छूट सकता है क्या ? श्रीहर्ष का यह उत्तर सुनकर सहमी हुई वाग्देवी ने उनका काव्य हाथ में ले लिया और शुद्ध कहकर सभा में उसकी प्रशंसा की। सरस्वती के विष्णु-पत्नी होने के सम्बन्ध में मल्लिनाथ ऋचा भी प्रमाण में दे रहे हैं—'तथास्वपि दृश्यते यथा-'पुरुषोत्तमस्य जगन्नाथस्य पाइँ लक्ष्मी-सरस्वत्यौ तयोः सुरतवादापचारश्च' / कण्ठे वसन्ती चतुरा यदस्याः सरस्वती वादयते विपञ्चीम् / तदेव वाग्भूय मुखे मुमक्ष्यिाः श्रोतुः श्रुतो याति सुधारसत्वम् // 50 // अन्वयः-अस्याः कण्ठे वसन्ती चतुरा सरस्वती यत् विपञ्चोम् वादयते, तत् एव मृगाक्ष्याः मुखे वाग्भूय श्रोतुः श्रुतौ सुधारसत्वम् याति / ___टोका--अस्याः दमयन्त्याः कण्ठे गले वसन्ती निवासं कुर्वती चतुरा निपुणा सरस्वती यत् विपञ्चीम् वीणाम् वादयते वादनं करोति तत बादनम् एव मृगस्याक्षिणी इवाक्षिणी यस्यास्तथाभूतायाः ( ब० वी० ) मृगनयन्याः दमयन्त्याः इत्यर्थः मुखे कण्ठे वाग्भूय वाणीरूपेण परिणम्येत्यर्थः श्रोतुः श्रवणकर्तुः जनस्य श्रुतौ कर्णे सुधा अमृतम् एव रसः द्रवः ( कर्मधा० ) तस्य भावः तत्त्वम् याति प्राप्नोति /