________________ नैषधीयचरिते रात को उत्पन्न हो जाते हैं। इसी तरह द्विज पक्षी को भी इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह पहले गर्भ से और फिर अण्डे से उत्पन्न होता है। आस्यम् इसके लिए पीछे श्लोक 21 देखिए / अधीयते अधि + इ + लट् ( कर्मवाच्य ) / अनुवाद-अथवा वृक्षों से ( फलपुष्पादि-रूप में भीख ( मांगकर ) खाने वाली कोयल द्विज ( पक्षी ) कामाद तवाद की वह अनोखी रहस्यात्मक बात इस ( दमयन्ती ) के मुख-रूपी द्विजराज ( चन्द्रमा ) से नहीं सीखती रहती है क्या ? (जिस तरह कि भीख ( मांगकर ) खाने वाला कोई द्विज ( ब्राह्मण) ब्रह्माद्वैत-प्रतिपादक गूढ़ उपनिषद् ग्रन्थ द्विजराज ( श्रेष्ठ ब्राह्मण ) से सीखा करता है ) // 48 // टिप्पणी-दमयन्ती का मुख और वाणी कामोद्दीपक हैं। उनके सामने आते ही सर्वत्र काम के अद्वैतवाद का एकच्छत्र साम्राज्य छा जाता है / काम के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता। कोयल की स्वर-माधुरी भी निस्सन्देह कामोद्दीपक होती है, लेकिन वह तो दमयन्ती की वाणी की चेली ही ठहरी / कहाँ चेली, कहाँ गुरुआणी। यहाँ आस्य-द्विजराज पर आरोप होने से रूपक है; विद्याधर ने कोयल और आस्य पर चेली और गुरु का व्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति कही है, किन्तु हम उत्प्रेक्षा कहेंगे। वाणी को कोयल की वाणी से अधिक बताने में व्यतिरेक भी है, 'द्विजे' 'द्विज' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास हैं। कवि ने अपनी भाषा को श्लिष्ट बनाकर यहां एक दूसरे अर्थ की ओर भी स्पष्टतः संकेत कर रखा है। उस अप्रस्तुत अर्थ का प्रकृत से कोई सम्बन्ध नहीं, अतः उनका उपमानोपमेय भाव सम्बन्ध बनाकर प्रतीयमान अर्थ को हम उपमाध्वनि ही कहेंगे। आस्यद्विजराजत:--- संस्कृत भाषा में यह एक विचित्र बात देखने में आती है कि मुख और उसके पर्यायवाची आनन, वक्त्र आदि सभी शब्द चेहरा और मुंह-दोनों के वाचक होते हैं यद्यपि चेहरा ( Face ) और मह ( Mouth ) ( जिससे हम बोलते, खाते हैं ) दो विभिन्न वस्तुयें होती हैं। यहां कवि दमयन्ती के मुंह अर्थात् वाणी का वर्णन करके कोयल के सम्बन्ध में कल्पना कर रहा है कि मानो वह दमयन्ती के 'आस्य द्विजराज' से शिक्षा पा रही हो / चन्द्रमा जैसा तो चेहरा होता है, जिससे कोयल का क्या सम्बन्ध ? प्रकरण तो वाणी का चल रहा है न कि चेहरे का। चेहरे का वर्णन तो कवि फिर आगे आठ-नौ श्लोकों में करेगा। कोयल दमयन्ती की अमृत-जैसी मधुर-कोमल वाणी