________________ 174 नैषधीयचरिते है, देखिए माघ-'रुचिरे रुचिरेक्षणविभ्रमाः' ( 6-46) / मल्लिनाथ ने इसका अर्थ शोभा ही किया है / माघ ने अन्यत्र भी (7 / 15, 16 / 64 ) विभ्रम को इसी अर्थ में प्रयुक्त किया है। भवभूति के भी प्रयोग मिलते हैं। अतः हम भी शोभा ही अर्थ लेंगे। श्रोत्रियों की शोभा श्रोत्रियों में ही हो सकती है, दांतों में नहीं, अतः असंभवद्वस्तु सम्बन्ध होने से यहां विभ्रमम् इव विभ्रमम्-यों बिम्बप्रतिबिम्बभाव मानकर हम निदर्शना कहेंगे जिसका पर्यवसान सादृश्य में होता है। 'राजी' 'राज' में छेक, 'बिभ्र' विभ्र' में ( बवयोरभेदात् ) यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। शिरीषकोषादपि कोमलाया वेधा विधायाङ्गमशेषमस्या प्राप्तप्रकर्षः सुकुमारसर्गे समापयद्वाचि मृदुत्वमुद्राम् // 47 // अन्वयः- वेधाः शिरीषकोषात् अपि कोमलायाः अस्याः अशेषम् अङ्गम् विधाय सुकुमार-सर्गे प्राध-प्रकर्षः सन् वाचि मृदुत्व-मुद्राम् समापयत् / टोका-वेषा: विधाता शिरीषस्य पुष्पविशेषस्य कोषात् कुड्मलात् कलिकातः इत्यर्थः ( 'कोषोऽस्त्री कुडमले' इत्यमरः ) कोमलायाः मृदोः अस्याः दमयन्त्याः अशेषम् न शेषोऽस्यास्तीति तथाभूतम् ( नन् ब० वी० ) निखिलम् समग्रम् अंगम् जातावेकवचनम् अवयवान् विधाय निर्माय सुकुमाराणाम् मृदूनाम् पदार्थानाम् इति शेषः सर्गे सृष्टी ( 10 तत्पु० ) प्राप्तः लब्धः प्रकर्ष: उत्कर्षः (कर्मधा०) येन तथाभूतः ( ब० वी० ) सन् वाचि वाण्याम् मृदुत्वस्य सौकुमार्यस्य मुद्राम् विशेषचिह्नमित्यर्थः, (ष. तत्पु.) समापयत् समाप्तिम् अनयत् / दमयन्त्याः सुकुमार-सुकुमारतराण्यङ्गानि विनिर्माय ब्रह्मा अन्ते सुकुमारवस्तुनिर्माणनैपुणीं तस्या वा निर्माण पराकाष्ठामनयदिति भावः // 47 // व्याकरण-वेधाः विदधाति इति वि + Vधा + असुन्, गुण / प्रकर्षः प्र + कृष् + घन् / वाक् वक्तीति इति/वच + क्विप्, दीघ, सम्प्रसारणाभाव / समापयत् सम् + आप् + णिच् + लङ् ! अनुवाद-शिरीष पुष्प की कली से भी कोमल इस ( दमयन्ती ) के सभी अङ्गों को बनाकर कोमल वस्तुओं के निर्माण में पूर्ण उत्कर्ष प्राप्त किये हुए ब्रह्मा ने इस ( दमयन्ती ) की वाणी के ( निर्माण ) पर कोमलता की अन्तिम छाप लगा दी है // 47 //