________________ 10. नैषधीयचरिते कभी शक् सकर्मक रूप में भी प्रयुक्त हो जाता है / मुद् /मुद्+क्विप् (भावे ) / त्रयम् त्रयोऽयवा अत्रेति त्रि + तयप् , तयप् को विकल्प से अयच् / अनुवाद-स्वर्ग में रहने वालों को सुख (ही) होता है, धर्म नहीं। इस ( भारत ) भूमि में सुख है और धर्म (भी) है। देवताओं को भी यज्ञों द्वारा प्रसन्न किया जा सकता है, ( अतः ) तीनों को छोड़कर मै एक को (ही) कैसे चाहूँ? // 18 // टिप्पणी-दमयन्ती स्वर्गभूमिकी अपेक्षा भारत-भूमि को विशेपता दे रही है। वह तर्क देती है कि नल को छोड़ इन्द्र देवता का वरण करने से मुझे स्वर्गसुख मिलेगा और उन्हें भी प्रसन्न कर लूंगी, सुख तो नल के वरण में भी है, दूसरे पहले उनके वरण से उन्हीं के साथ पातिव्रत्य धर्म भी निभता रहेगा / अब इन्द्र के वरण से मेरा पातिव्रत्य धर्म भंग हो जाएगा। साथ ही अग्नि आदि अन्य देवता कुपित हो जाएंगे कि मैंने उन्हें ठुकराया है। नल के साथ रहने से यज्ञ द्वारा इन्द्र को ही नहीं, बल्कि अन्य देवताओं को भी प्रसन्न कर सकती हूं। इसलिए मेरे लिए नल-पक्ष ही बलवान है, इन्द्रपक्ष नहीं। नल-वरण एक कार्य करने से अन्य कार्य-सुखप्राप्ति, धर्मानुष्ठान और देवताओं का आराधन-भी युगपत् हो जाने से समुच्चय अलंकार है। 'शर्म, धर्मा' में छेक, अन्यत्र वृत्त्य नुप्रास है। साधोरपि स्वः खलु गामिताधो गमी स तु स्वर्गमितः प्रयाणे / इत्यायती चिन्तयतो हृदि द्वे द्वयोरुदर्कः किमु शर्करे न // 99 // अन्वयः-साधोः अपि स्वः प्रयाणे खलु अधः गामिता, तु इतः प्रयाणे स स्वर्गम् गमी-इति द्वे आयती हृदि चिन्तयतः ( पुरुपस्य ) द्वयोः उदर्कः शर्करे न किमु ? ___टीका-साधोःसत्पुरुषस्य अपि स्वा स्वर्लोकात् प्रयाणे शरीरत्यागे खलु निश्चयेन अधः नीचैः भूलोके इत्यर्थः गामिता पतनम् भवतीति शेषः, तु किन्तु इत: भारतात् प्रयाणे मरणे स साधु खलु स्वर्गम् स्वर्गलोकम् गमी गमिष्यति पुण्यकर्मकारित्वात् / अत्र 'प्रयाणे' 'खलु' शब्दौ देहलीदीपकन्यायेन उभयत्र सम्बध्येते / इति एवम् द्वे आयती उत्तरकालो भविष्यत्कालाविति यावत् ( 'उत्तरःकाल आयतिः' इत्यमरः) हृवि मनसि चिन्तयतः विचारयतः पुरुषस्य द्वयोः उभयोः तयोः उदर्कः