________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-यहाँ कवि की कल्पना यह है कि चन्द्र अपना कलंक छोड़कर दमयन्ती का मुख बना हुआ है। मुख निष्कलंक होने के कारण चन्द्र को अपना कलंक छोड़ना पड़ा। उसका छोड़ा हुआ काला कलंक और महादेव द्वारा जलाये जाने पर काला हुआ पडा कामदेव का धनुष-ये दोनों दमयन्तो की दो भौंहें बनीं / हमारे विचार से यहाँ उत्प्रेक्षा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। / बालभावम्-यहाँ 'वबयोरभेद:' नियम के अनुसार वालभाव का अर्थ बालत्व लेकर कवि को यह दूसरा अर्थ भी विवक्षित है कि धनुष और कलंक ने भ्रू के रूप में जन्म लिया, तो उनमें बालत्व उचित ही है अर्थात् उनमें बालस्वभाव-सुलभ लीला-क्रीडा और चपलता होनी ठीक ही है। पिछले श्लोक की तरह इसे हम उपमाध्वनि ही कहेंगे। . इषुत्रयेणैव जगत्त्रयस्य विनिर्जयात्पुष्पमयाशुगेन / शेषा द्विबाणी सफली कृतेयं प्रियाहगम्भोजपदेऽभिषिच्य / / 27 / / - अन्वयः-पुष्पमयाशुगेन इषुत्रयेण एव जगत्-त्रयस्य विनिर्जयात् शेषा इयम् द्विबाणी प्रियादृगम्भोजपदे अभिषिच्य सफलीकृता। टीका-पुष्पाणि कुसुमानि एवेति पुष्पमयाः पुष्परूपाः आशुगाः बाणा: ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतेन (ब० वी० ) कामदेवेनेत्यर्थः इषूणाम् बाणानाम् त्रयेण ( 10 तत्पु० ) त्रिनिर्वाणरित्यर्थः एव जगताम् लोकानाम् त्रयस्य ( 10 तत्पु० ) विनिर्जयात् जयकारणात्, अर्थात् एकैकेन बाणेन कामेन त्रीणि जगन्ति जितानि, अवशिष्टं बाणद्वयम् मा तावद् व्यर्थं स्यादिति मनसि कृत्वा तेन शेषा अवशिष्टा इयम् पुरोदृश्यमाना द्वयोः बाणयोः समाहारः इति द्विबाणी बाणद्वयम् ( समाहारद्विगु ) प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः दृगम्भोजे ( 10 तसु० ) दृशौ एव अम्भोजे इन्दीवरे ( कर्मधा० ) तयोः पदे स्थाने अभिषिच्य अभिषेकं कृत्वा प्रतिष्ठाप्येति यावत् असफला सफला सम्पद्यमाना कृतेति सफलोकृता साफल्यं नीता / दमयन्त्याः द्वे दृगिन्दीवरे कामस्य द्विबाणीव प्रतीयते सकलयुवककामोद्दीपकत्यादिति भावः // 27 // व्याकरण-पुष्पमय पुष्प + मयट ( स्वरूपार्थे ) / आशुगः आशु (शीघ्रम्) गच्छतीति आशु + गम् + ड। त्रयेण त्रयोऽवयवा अत्रेति त्रि+ तयप् , तयप् को विकल्प से अयच् / शेष शिष्यते इति / शिष् + अच् / यहाँ यह विशेषण शब्द है / अम्भोजम् अम्भसि जायते इति अम्भस् + / जन् + ड /