________________ सप्तमः सर्गः 169 रूप में चन्द्रमा को दे दे, तो वह देव ( चन्द्रमा ) उसी की (निज किरणों द्वारा) आरती के रूप में पूजा करके किरणो का जन्म सफल कर दे // 43 // टिप्पणी-अधर के बाद अब कवि दमयन्ती के स्मित-मुसकान का वर्णन करने चला है, जो इतनी शुभ्र एवं निर्मल है कि चाँदनी उसके हजारवाँ भाग की भी बराबरी नहीं कर सकती। यदि दमयन्ती कृपा करके स्मित का हजारवाँ भाग चन्द्रमा को दे देवे, तो चन्द्र ही अपनी चाँदनी से उस (स्मित) को आरती उतार कर अपनी चाँदनी का जन्म सार्थक कर दे। यहाँ 'निमिच्छय' शब्द संदिग्ध है। नारायण ने नि-पूर्वक मिच्छ धातु का नीराजना अर्थ लिया, जिसे हम भी अपना रहे हैं। मल्लिनाथ ने 'निमित्य' पाठ दिया है और उसका अर्थ 'स्वकौमुदीषु निक्षिप्य' किया है। चाण्डू पण्डित ने 'निर्मच्छय' पाठ देकर श्लोकार्ध की-तत् स देवः स्मितस्य अंशं निर्मच्छय कौमुदीनां स्वं जन्म सफलं कुरुते = निजाः कौमुदी: स्मितस्य उपरि उत्तार्य त्यजति / अथवा कौमुदीनां देवः तं स्मितांशं निर्मच्छय स्वं जन्म सफलं कुरुते।' ऐसी व्याख्या की है। विद्याधर और ईशानदेव ने 'निमिच्छ्य' पाठ देकर उसका 'भ्रामयित्वा' अर्थ किया है / विद्याधर और चाण्डू पण्डित ने यहाँ अतिशयोक्ति कहा है, क्योंकि कौमुदी से स्मित का सम्बन्ध न होने पर भी यदि शब्द के द्वारा सम्बन्ध की संभावना की गई है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / चन्द्राधिकैतन्मुखचन्द्रिकाणां दरायतं तत्किरणाद्धनानाम् / पुरःसरस्रस्तपृषद्वितीयं रदावलिद्वन्द्वति विन्दुवृन्दम् / 44 // अन्वयः-तत्किरणात् घनानाम् चन्द्रा' 'काणाम् दरायतम् पुरः "तीयम् बिन्दुवृन्दम् रदावलिद्वन्द्वति। टीका-तस्ग पूर्वोक्त-चन्द्रस्य किरणात् किरणेभ्य इत्यर्थः जाती एकवचनात् चन्द्रकिरणापेक्षयेति यावत् (10 तत्पु० ) धनानाम् निबिडानाम् चन्द्रात् अधिकम् उत्कृष्टम् ( पं० तत्पु० ) एतन्मुखम् ( कर्मघा० ) एतस्या दमयन्त्याः मुखम् आननम् ( 10 तत्पु० ) तस्य चन्द्रिकाणाम् कौमुदीनाम् किरणानामित्यर्थः ( 10 तत्पु० ) दरम् ईषत् यथा स्यात् तथा आयतम् दीर्घम् ( सुप्सुपेतिसमासः ) पुरः अग्रे सरन्तीति तथोक्तानि ( उपपद तत्पु० ) सम्तानि क्षरितानि निःसृतानीति यावत् पृषन्ति बिन्दवः द्वितीयानि ( उभयत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम्