________________ 170 नैषधाय चरिते (ब० वी० ) बिन्दुनां पृषताम् वन्दम् समूहः रदानां दन्तानाम् आबलिः पंक्तिः तयोः द्वन्द्वम् युगलम् ( उभयत्र 10 तत्पु० ) इव आचरति तत्सदृशमस्तीत्यर्थः / असंभावः-दमयन्त्याः मुखं चन्द्रादपि उत्कृष्टं वर्तते अतः चन्द्रकिरणापेक्षया तत्किरणाः अधिकघनाः सन्ति / तेषां प्रथमक्षरितबिन्दुसमूहात दमयन्त्याः नीचैःस्था लघुदन्तपक्तिः अनन्तरक्षरितबिन्दुसमूहेन च किमपि आयता उपरितनदन्तपंक्तिः जाता / 44 // व्याकरण-चन्द्रिका चन्द्र + ठन् + टाप / आयत आ + यम् + क्त ( कर्तरि ) / पुरःसर पुरः सरतीति पुर + सु + अच् ( कर्तरि ) / द्वितीय द्वयोः पूरणम् इति द्वि + तीय / द्वन्द्वति द्वन्द्वम् इव आचरतीति द्वन्द्व + क्विप् ( आचारार्थे) + लट् / द्वन्द्वम् द्वौ द्वौ इति इ को अम् और नपुंसक (निपातनात्) / ___ अनुवाद-उस ( चन्द्रमा ) की किरणों की अपेक्षा घने-ठोस-चन्द्रमा से उत्कृष्ट इस ( दमयन्ती ) के मुख ( चन्द्र ) की किरणों से पहले टपकी बूंदों का समूह ( नीचे की) दन्तपंक्ति और ( बाद को ) टपकी बूंदों का समूह ( ऊपर की ) दन्तपंक्ति की जोड़ी का काम दे रहे हैं // 44 // टिप्पणी-यहां से लेकर कवि अब तीन श्लोकों में दमयन्ती के दाँतों का वर्णन करने जा रहा है / लौकिक चन्द्र से दमयन्ती का मुख-चन्द्र कितना ही अधिक उत्कृष्ट है। उसकी किरणें भी अपेक्षाकृत घनी और ठोस-सी हैं। घनी होने से जो किरणें बूंदों के रूप में पहले पतली-ठोस सी गिरी वे निचली दन्तपंक्ति बन गईं और बाद को गिरने वाली किरणों की बूंदें जो कुछ स्थूल-सी थीं वे ऊपर की दन्तपंक्ति बन गईं। शब्दान्तर में उसकी दो दन्तपंक्तियां उसके मुखचन्द्र की ज्योत्स्ना से टपके बूंदों के ठोस रूप हैं। 'घनानाम्' पद देकर कवि यह ध्वनित करता है कि जैसे बादल की पहले गिरी बूदें छोटी होती हैं एवं बाद की गिरी मोटी, उसी तरह मुखज्योत्स्ना की बूंदों का भी हाल है / विद्याधर ने चन्द्रिकाओं पर घनत्वारोप किया है। दांतों का कुछ बड़े घने और छोटे होना सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभ लक्षण है / मुख पर गम्य रूप में चन्द्रत्वारोप होने से रूपक है। आचारार्थ में 'द्वन्द्वति' में क्विप होने से यहाँ विद्याधर उपमा कह रहे हैं / आचार सादृश्य का ही नामान्तर है, लेकिन हमारे विचार से आचार यहाँ संभावना-परक समझा जाना चाहिए क्योंकि यह कवि-कल्पना ही