________________ 148 नैषधीयचरित होते हैं। भौहों के काले होने के कारण केसरों के जल जाने से काले पड़ने की कल्पना करनी पड़ी है, अतः दो श्लोकार्थों में परस्पर सापेक्ष दो उत्प्रेक्षाओं का संकरालंकार है। 'किम्' शब्द उत्प्रेक्षा के वाचक हैं। विद्याधर यतिशयोक्ति भी बता रहे हैं / 'व्यधा' 'व्यध' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / म्रभ्यां प्रियाया भवता मनोभूचापेन चापे धनसारभावः / निजां यदप्लोषदशामपेक्ष्य संप्रत्यनेनाधिकवीर्यताजि // 25 // अन्वयः-प्रियायाः भ्रूभ्याम् भवता मनोभूचापेन घनसारभावः च आपे यत् निजाम् अप्लोषदशाम् अपेक्ष्य सम्प्रति अनेन अधिकवीर्यता आजि / टीका--प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः भ्रूभ्याम् भ्रूद्वयेन भवता उत्पद्यमानेन भ्र द्वये परिणमतेत्यर्थः मनोभुवः मनसिजस्य चापेन धनुषा (ष० तत्पु०) धन: दृढश्च सारः सुसंहतश्च ( कर्मधा० ) तयोः भावः तत्तेत्यर्थः च आपे प्राप्तः, दमयन्त्याः भ्रूयुगलत्वमवाप्य कालचापो दृढः सुसंहतश्च जातः इति भावः / यत् यस्मात् न प्लोषः दाह इत्यप्लोपः ( नन तत्पु० ) तस्य वशाम् अवस्थाम् अपेक्ष्य अदग्धावस्थापेक्षयेत्यर्थः सम्प्रति इदानीम् भ्रूत्वप्राप्ति-दशायाम् अनेन मूभूतेन कामचापेन अधिकं वोर्यम् शक्तिः ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतस्य ( ब० वी० ) भावः तत्ता आजि अजिता प्राप्तेत्यर्थः / पुष्पदशायाम् वर्तमानः कामचापो मृदुः निस्सारश्वासीत्, किन्तु सम्प्रति दाहानन्तरं भ्रूप्राधिदशामापन्नः सन् असी अधिकं दृढत्वं सारत्वं चावाप्य लोकवशीकरणेऽधिकसमर्थो जातोऽस्तीति भावः // 25 // व्याकरण-मनोभूः इसके लिए पीछे श्लोक 23 देखिए / आपे आप् + लिट् ( कर्मवाच्य ) / प्लोष:/प्लुष् + घम् / वीर्यम् वीरस्य भाव इति वीर + यत् / आजि / अर्ज + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / __अनुवाद-प्रिया ( दमयन्ती ) की भौंह बनते हुए कामदेव के धनुष ने दृढ़ता और ठोसपन अपना लिया है, क्योंकि अदग्धावस्था की अपेक्षा इस समय उसने अधिक शक्तिशालिता प्राप्त कर रखी है // 25 // टिप्पणी-विद्याधर के अनुसार यहाँ अतिशयोक्ति है, क्योंकि भ्रू और चाप भिन्न होते हुए भी उनका अभेदाध्यवसाय हो रखा है। साथ ही अनुमानालंकार भी है, क्योंकि जगत को वश में करने की इसकी सामर्थ्य से यहाँ उसकी दृढ़ता और ठोसपन का अनुमान किया जा रहा है / तात्पर्य यह निकला कि पुष्प-रूप में