________________ सप्तमः सर्गः 165 व्याकरण-विशेषः वि + /शिष् + घन ( भावे ) / अक्षमाः न क्षमाः क्षमन्ते इति क्षम् + अच् ( कर्तरि ) / भ्रमः भ्रम् + घन ( भावे)। अनुवाद-अत्यन्त लाल होने के कारण बिम्ब फल तो सामने यही ( दमयन्ती का निम्न ओष्ठ ) है-ऐसा मैं समझता हूँ। बिम्बफल इसकी अपेक्षा अधर-निम्नकोटि का-स्पष्ट ही है। इन दोनों-विम्ब फल और अधर-में विशेष भेद न समझकर रुकने वाले लोगों को नाम के विषय में भ्रम हो रखा है // 39 // टिप्पणी--यह सर्वविदित है कि उपमान गुण में उपमेय की अपेक्षा अधिक और उपमेय न्यून ही हुआ करता है। इस कसौटी से परखने पर बिम्ब को अधर कहना चाहिए, क्योंकि वह गुण में अधर -हीन है और अधर को बिम्ब कहना चाहिए, क्योंकि वह गुण में अधिक है। गलती से लोगों ने नामों को उलट-पलट कर दिया है। निष्कर्ष यह निकला कि दमयन्ती का अधर लाली में बिम्ब से कई गुना अधिक सुन्दर है। 'इदम्' पर विम्बत्वारोप होने से रूपक है, जो 'जाने' शब्द से वाच्य हुई उत्प्रेक्षा को बना रहा है। 'बिम्ब' 'बिम्ब' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। मध्योपकण्ठावधरोष्ठभागौ भातः किमप्युच्छ्वसितौ यदस्याः / तत्स्वप्नसंभोगवितीर्णदन्तदंशेन किं वा न मयापराद्धम् // 40 // अन्वयः- अस्याः मध्योपकण्ठौ अधरोष्ठभागो किम् अपि उच्छ्वसितो यत् भातः तत् स्वप्न 'दंशेन मया वा न अपराद्धम् किम् ? टीका-अस्या दमयन्त्याः मध्यम्य मध्यवर्ति-भागस्य उपकण्ठौ समीपस्थिती ( 10 तत्पु० ) ( उपकण्ठान्तिकाभ्याभ्यना' इत्यमरः ) अधरोष्ठस्य निम्नदन्तच्छदस्य भागो प्रदेशी ( 10 तत्पु० ) किमपि ईषत् यथा स्यात् तथा उच्छवसिती उच्छूनौ यत् यस्मात् भातः लसतः तत् तस्मात् स्वप्ने स्वप्नावस्थायाम् यः संभोगः दमयन्त्या सह इन्द्रियोपभोगः ( स० तत्पु० ) तस्मिन् वितीर्णः दत्तः ( स० तत्पु० ) दन्तदशः दन्तक्षतम् ( कर्मधा० ) दन्तः क्षतम् ( तृ० तरपु०) येन तथाभूतेन ( ब० वी० ) मया वा सम्भवतः न अपराद्धम् मयाऽपराधः कृतः किम् ? अधर-मध्यभागस्य समीपतिनौ वाम-दक्षिण पाश्वौं किमपि प्रवृद्धी विलोकयतो नलस्य शंकाऽभत् 'स्वप्ने मया दन्तक्षतं कृतं स्यात् यत्कृनेयमुच्छूनतेति भावः // 40 //