________________ 151 सप्तमः सर्गः अनुवाद-पुष्पमय बाण वाले कामदेव ने तीन बाणों से ही तीनों लोकों को जीत लेने के कारण शेष बचे दो बाणों को प्रिया ( दमयन्ती ) के नयन रूपी इन्दीवरों के स्थान पर अभिषिक्त करके सफल बना दिया // 27 // टिप्पणी--इस श्लोक से लेकर आगे आठ श्लोकों तक कवि अब दमयन्ती के नयनों का वर्णन कर रहा है। काम के तीन बाणों ने जब तीन लोक जीत लिए, तो दो बाण व्यर्थ पड़े देखकर उसने उन्हें दमयन्ती के दो नयनों के रूप में अभिषिक्त कर दिया जिससे वे सफल हो गये / काम को पञ्चबाण कहा जाता है / उसके पाँच वाणों के भीतर अम्भोज भी आता है। इसके लिए कवि ने दृगों पर अम्भोजत्व का आरोप किया है। इससे यहाँ यह ध्वनि निकलती है कि तीन बाणों ने तीन लोक जीते हैं-इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि दमयन्ती के दृगम्भोज-रूप दो ही बाणों ने तीन लोक जीत लिए हैं। वास्तव में सफल तो ये दो बाण ही हैं, वे तीन बाण नहीं। दृगों पर अम्भोजत्व के आरोप में रूपक है और उनपर काम-बाणों की कल्पना में उत्प्रेक्षा है, जो गम्य है वाच्य नहीं। विद्याधर विषम और अतिशयोक्ति मान रहे हैं। शब्दालंकार 'त्रये' 'त्रय' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। सेयं मृदुः कौसुमचापयष्टिः स्मरस्य मुष्टिग्रहणाहंमध्या। तनोति नः श्रीमदपाङ्गमुक्तां मोहाय या दृष्टिशरोघवृष्टिम् // 28 // अन्वयः- मुष्टिग्रहणाहमध्या, मृदुः सा इयम् स्मरस्य ( मुष्टिाहणार्हमध्या मृदुः ) कोसुम-चापयष्टिः ( अस्ति ) या नः मोहाय श्रीमदपाङ्गमुक्ताम् दृष्टिशरोधवृष्टिम् तनोति ! टोका-मुष्ट या ग्रहणम् धारणम् (तृ० तत्पु० ) तस्य अर्हम् योग्यं ( 10 तत्पु० ) मध्यं कटिभागोऽथ च लस्तकः धनुर्मध्यभाग इति यावत् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूता ( ब० वी० ) मदुः कोमला सा प्रसिद्धा इयम् एषा दमयन्ती स्मरस्य कामस्य कुसुमानाम् अयमिति कौसुमः पुष्पमयः चापः धनुः ( कर्मधा० ) तस्य यष्टिः दण्डः ( 10 तत्पु०) अस्तीति शेषः / दमयन्त्याः सूक्ष्म मध्यं ( कटिः ) तथा मुष्टिग्राह्यं मुष्टिमेयमिति यावत् अस्ति यथा कामस्य पौष्पधनुषा मध्यं ( मध्य भागः ) मुष्टिग्राह्यं हस्तधार्यमिति यावद् भवतीत्यर्थः, या कोसुमचापयष्टिरूपा दमयन्ती न: अस्माकं मोहाय मूर्च्छनाय श्रीः शोभा अस्यास्तीति