________________ नैषधीयचरिते ___टीका-अनेन प्रत्यक्षं दृश्यमानेन मुखं वदनम् एव इन्दुः चन्द्रः ( कर्मधा० ) तेन सह सार्धम् उज्जिहाना उद्वयन्ती उत्पद्यमानेत्यर्थः अस्या: दमयन्त्या अधरः निम्नश्चासौ ओष्ठः दन्तच्छदः ( कर्मधा० ) तस्य लेखा रेखा ( 10 तत्पु० ) रेखारूपेण स्थितः अधरोष्ठ इत्यर्थः रागस्य लालिम्नः श्रिया कान्त्या ( 10 तत्पु०) बन्धूकः बन्धुजीवकः रक्तपुष्पजातिविशेषः ( 'बन्धूको बन्धुजीवकः' इत्यमरः) तस्य अबन्धुः बन्धुः सखा सम्पद्यमानो भवत् इति बन्धूभवत्ब न्धूकपुष्पसादृश्यं प्राप्नुवदित्यर्थः एतत् प्रत्यक्ष-दृश्यमानम् स्वम् आत्मानम् ( 'आत्मनि स्वम्' इत्यमरः ) शैशवं बाल्यं च यौवनं तारुण्यं चेति ( द्वन्द्व ) तयोः इमाम् सन्ध्याम् आह कथयति / दमयन्त्याः उत्तरोत्तर-वर्धमानाधरोष्ठरक्तिमा आत्मानं शैशव-यौवनवयःसन्धिस्थितम् कथयतीति भावः / व्याकरण---उज्जिहाना उत्/हा + शानच् + टाप् / बन्धभवत् बन्धु + वि, उ को दीर्घ +/भू + शत। यौवनीयाम् ०यौवन + छ, छ को ईय / आह /+ लट् , ब्रू को आह आदेश / - अनुवाद -इस मुख-रूपी चन्द्रमा के साथ ही उदय होती हुई इस ( दमयन्ती) की अधरोष्ठ की रेखा ( अपनी) लालिमा की छटा से गुड़हल के फूल की तरह होते हुए अपने को शैशव और यौवन के वीच की सन्ध्या कह रही है // 37 // टिप्पणी-यहाँ से लेकर आगे के पाँच श्लोकों तक कवि दमयन्ती के अधर का वर्णन कर रहा है / अधर की लाली ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों यौवन अपना अधिकार जमाने लगता है। शैशव में लाली उतनी अधिक नहीं होती है ! मुख-रूपी चन्द्र भी साथ होने से चेहरे पर गौर वर्ण भी झलक रहा है। इस तरह दमयन्ती मुख-गौरत्व और अधर-लालिमा से अपने को शिव और यौवन की सन्ध्या बनाये हुए हैं / सन्ध्या 'सन्धौ भवा' को कहते हैं / दिन और रात की सन्धि को भी इसीलिए सन्ध्या कहते हैं कि उसमें भी उदय होते हुए चन्द्रमा की कुछ सफेदी रहती है और साथ में अस्त होते हुए सूर्य की लाली भी रहती है / 'स्वम्' पर सन्ध्यात्वारोप और मुख पर इन्दुत्वारोप होने से रूपक और 'बन्धूभवत्' में उपमा है / बन्धू 'बन्धू' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / अस्या मुखेन्दावधर: सुधाभूबिम्बस्य युक्तः प्रतिबिम्ब एषः / तस्याथ वा श्रीगुमभाजि देशे संभाव्यमानास्य तु विद्रुमे सा // 38 //