________________ सप्तमः सर्गः 15 नीलगोलामलश्यामलतां राति गृह्णातीति तारो भ्रमरः तेन तारम् अस्याः दमयन्त्या अक्षि नयनमेव पद्मम् कमलम् ( कर्मधा० ) अस्याः दमयन्त्याः अक्षिपद्मम् इव अस्तीति शेषः / दमयन्त्या अक्षिपमेन सदृशम् अन्यत् किमप्युपमानं नास्तीति भावः // 29 // व्याकरण-आधूणितम् आ + /घूर्ण + क्त (कर्तरि)। पक्ष्मलम् पक्ष्म + लच ( मतुबर्थ)। अक्षि-अश्नुते ( व्याप्नोति) विषयानिति -अश् + क्सिः / श्वत्यम श्वेतस्य भाव इति श्वेत + ष्यन् / श्यामल श्यामरूपमस्यास्तीति श्याम + लच् ( मतुबर्थे ) / __ अनुवाद-धीरे-धीरे खुलने के रूप में खिलते हुए, रोमों के रूप में पंखुड़ियां रखे, कोरों की कान्ति की सफेदी से चन्द्रमा को परास्त किये एवं हिल रहे इन्द्रनील मणि के गोलक ( बंटे) की तरह निर्मल श्याम और उज्ज्वल पुतलियों के रूप में भ्रमरों से गुञ्जायमान इस ( दमयन्ती ) के नयन-कमल इसके नयन-कमल के ही तरह हैं // 29 // टिप्पणी-यहाँ दमयन्ती के घूमते-धीरे-धीरे खिलते हुए, पक्ष्मों (बरौनियों) वाले, प्रान्त भाग की श्वेतिमा से चन्द्रमा को जीते हुए, इन्द्रनील की तरह काली पुतलियों वाले नयनों पर धीरे-धीरे खिलते हुए, पंखुड़ियों तथा शब्द करते हुए भ्रमरों से युक्त नीलकमलों का तादात्म्य स्थापित करने से रूपक हैं, जो श्लेष द्वारा समस्तवस्तुविषयक बना हुआ है। नयन जब कमल बन गये, तब उनकी बराबरी का कोई रहा ही नहीं। वैसे तो नयन कमलों की तरह होते है, लेकिन नयन-कमलों की कमलों से तुलना कैसे हो सकती है / तुलना के लिए तो अन्य ही हुआ करता है / कमल कमल तो एक ही हुए / इस तरह दमयन्ती के नयन-कमलों की ही तरह होने में अनन्वयालंकार भी बन रहा है / 'तार' 'तार' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / कर्णोत्पलेनापि मुखं सनाथं लभेत नेत्रद्युतिनिजितेन / यद्येतदीयेन ततः कृतार्था स्वचक्षुषी किं कुरुते कुरङ्गी // 30 / / अन्वयः-कुरङ्गी नेत्रतिनिजितेन एतदीयेन कर्णोत्पलेन अपि सनाथम् मुखम् ( यदि ) लभेत, ततः कृतार्था ( सती ) स्वचक्षुषी किम् कुरुते ? टोका-कुरङ्गी मृगी नेत्रयोः दमयन्त्याः नयनयोः धुत्या कान्त्या ( 10