________________ 158 नैषधीयचरिते चञ्चल हैं। ऋण देने और लेने की कवि-कल्पना में उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक 'किम्' शब्द है। उसके साथ-साथ विद्याधर के अनुसार समासोक्ति भी है, क्योंकि हिरनियों और दमयन्ती में ऋण लेने वाली और ऋण देने वाली का व्यवहार बताया गया है। किन्तु हमारे विचार से उत्प्रेक्षा ही पर्याप्त है। समासोक्ति में जड का चेतनीकरण हुआ करता है। यहाँ हिरनियाँ और दमयन्ती पहले से ही चेतन हैं / विद्याधर यहां छेकानुप्रास भी कहते हैं। 'ऋणी' 'रिणी' में तो छेक नहीं बन सकता, क्योंकि 'ऋ' स्वर है जब कि 'रि' व्यञ्जन है। व्यञ्जन-संहति-साम्य ही छेक का प्रयोजक होता है। हाँ उनका अभिप्राय 'भ्यत' "भ्यती' से ही होगा, जो ठीक ही है। दृशौ किमस्याश्चपलस्वभावे न दूरमाक्रम्य मिथो मिलेताम् / न चेत्कृतः स्यादनयोः प्रयाणे विघ्नः श्रवःकूपनिपातभीत्या॥ 34 // अन्वयः-चपल-स्वभावे अस्याः दृशौ दूरम् आक्रम्य मिथः न मिलेताम् किम् ? चेत् अनयोः प्रयाणे श्रवःकूप-निपात भीत्या विघ्नीकृतः न स्यात् / टीका-चपल: चञ्चल: स्वभावः प्रकृतिः ( कर्मधा० ) ययोः तथाभूते (ब० बी० ) अस्याः दमयन्त्याः दृशो नयने दूरम् यथा स्यात्तथा आक्रम्य गत्वा मिथः परस्परम् न मिलेताम् संमिलिते न भवेताम् किम् अपि तु मिलेतामेवेति काकुः (किन्तु ) चेत् अनयोः दृशोः प्रयाणे गमने श्रवसी श्रोत्रे ( 'श्रुतिः स्त्री श्रवणं श्रवः' इत्यमरः) तयोः कूपौ छिद्रे इत्यर्थः (10 तत्पु० ) तयोः निपातः पतनम् ( स० तत्पु० ) तस्मात् भीत्या भयेन (पं० तत्पु० ) निघ्नः अन्तरायः कृतः विहितः न स्यात् / दमयन्त्याः दृग्भ्याम् शिरःपश्चाद्-भागेन परिभ्रम्य परस्परं संमिलिताभ्याम् भवितव्यमासीत्, किन्तु मध्येमार्ग श्रवणकूपपतनभयेन विघ्नः कृतः, तस्मात् ते निवृत्ते इति भावः // 34 // व्याकरण-दृक् पश्यतीति /दृश् + क्विप् ( कर्तरि, कर्तृत्वं चात्रौपचारिकम् ) श्रवस् श्रूयतेऽनेनेति श्रु+ अस् ( करणे ) / भोतिः /भी + क्तिन् ( भावे ) / विघ्नः विहन्तीति वि + हन् + कः / अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) की चंचल स्वभाव वाली आखें दूर जाकर आपस में नहीं मिल जाती क्या, यदि इनके जाने में कर्ण-छिद्रों में गिर पड़ने का भय आड़े न आता ? // 34 //