________________ सप्तमः सर्गः इत्यमरः) (10 तत्पु०) त्वचः गर्भस्थ-वल्कलात् त्वचः बाह्य-वल्कलानि उत्पला. नाम् नील-कमलानाम् ओघात् समूहात् (10 तत्पु० ) दलानि पत्राणि च रोत्या प्रकारेण क्रमेणेत्यर्थः समुत्तार्य समुत्पाटय पृथक्-कृत्येत्यर्थः पञ्च षट् वा संख्या येषां तथाभूतानां (ब० वी० ) कदली-वल्कलानां उत्पलौघदलानां च पाटनायां समुत्तारणायां सत्याम् मोचात्वचः उत्पलौघात् च गृहीत: उपात्तः सारैः सारभूतैः श्रेष्ठांशैः अस्याम् दमयन्त्याम् विधिः ब्रह्मा ईक्षणयोः नयनयोः रूपस्य सौन्दर्यस्य (10 तत्पु० ) शिल्पी निर्माता अभत अभवत् / ब्रह्मणा कदलीवृक्षस्य क्रमशः पञ्चषाणि वल्कलानि उत्पलस्य चापि क्रमशः पञ्चषाणि दलानि समुत्पाटय तदन्तर्भूतश्वेतनीलसारांशः दमयन्तीनेत्रसौन्दर्य सृष्टमिति भावः // 31 // व्याकरण-समत्तार्य सम् + उत् + Vत + णिच् + ल्यप् / पञ्चष 'संख्यया. व्ययासन्ना०' ( 2 / 2 / 25 ) से ब० वी०; 'बहुव्रीही सङ्घचये. ( 5 / 4 / 73 ) से डच् / पाटनायाम् पट + णिच + युच, यु को अन + टाप / ईक्षणम् ईक्ष्यतेऽनेनेति /ईक्ष + ल्युट ( करणे)। शिल्पी शिल्पम् अस्यास्तीति शिल्प + इन् ( मतुबर्थ)। __ अनुवाद केले के ( भीतरी ) वल्कल के ऊपर से ( बाहरी ) वल्कलों को तथा उत्पलसमूह की ( भीतरी ) पंखुड़ियों के ऊपर से ( बाहरी ) पंखुड़ियों को ढंग से उतारकर पाँच-छ: तक की तहों के निकल जाने पर ( केले के वल्कलों तथा उत्पल-समूह से ) लिये हुए मूल-तत्त्वों से इस ( दमयन्ती) में ब्रह्मा आँखों के सौन्दर्य का निर्माता बना // 31 // टिप्पणी-दमयन्ती की सौन्दर्य-भरी, कोमल, श्वेत-नील आँखों पर कवि की यह कल्पना है कि उनके बनाने में ब्रह्मा ने जिन उपादानों-मूलतत्त्वों को अपनाया है वे हैं केले के वल्कलों तथा नीलोत्पलों की पंखुड़ियों की पाँच-छ परतों को हटाकर रह रहे भीतरी मूलतत्त्व अर्थात् सार-भूत अंश / शब्दान्तर में, स्रष्टा ने उसकी आँखों हेतु केले के भीतरी कोमल भाग से श्वेतिमा और नीले कमल की पंखुड़ियों के भीतरी भाग से नीलिमा ली हैं। कल्पना होने से यहाँ उत्प्रेक्षा है, लेकिन वह प्रतीयमान है, वाच्य है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र यथासंख्यातिशयोक्तिरलङ्कारः' / 'त्वचः' 'त्वचः' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। श्लोक में शब्दों के अन्वय और अध्याहार के कारण अर्थ में क्लिष्टता आ जाने से अर्थगत क्लिष्टत्व दोष है।