________________ 138 नैषधीयचरिते क्तिनोऽपवादः)। अगुः /इ + लुङ, इ को गा आदेश, सिच का लोप / अनति /नृत् + लुङ ( भाववाच्य ) ! उपमा उप + /मा + अङ् ( भावे ) + टाप् / उपमाता उपमिनोतीति उप + /मा + तृच ( कर्तरि ) / प्रतिष्ठाम् प्रति + स्था + अङ् ( भावे ) + टाप् / दाता /दा+ लुट् ! अनुवाद-( चन्द्रादि ) सुन्दर वस्तुयें इस ( दमयन्ती ) के अंगों की अपेक्षा जैसे-जैसे ( गुणों में ) हीन होती गई, वैसे-वैसे वे ( आनन्द में ) नाचीं, क्योंकि गुणों में ( अधिक ) इन ( अंगों ) के साथ उपमा देने के कारण उपमाता ( कवि ) उन्हें गौरव ही प्रदान करेगा / / 16 // टिप्पणी-दमयन्ती के मुख, आँख, अधर आदि तो चन्द्र, इन्दीवर, बिम्ब आदि की अपेक्षा गुण में कहीं अधिक उत्कृष्ट हैं, फिर भी जब मुखादि के लिए कोई अन्य उपमान न होने से कवि लोगों को उनको चन्द्रादि से तुलना करनी पड़ेगी अर्थात् उनकी तरह चन्द्रादि हैं, तो यह चन्द्रादि के लिए कितने गौरव को बात होगी कि वे गुणहीन होने पर भी कवियों की कृपा से दमयन्ती के मुख आदि के उपमेय बने हुए हैं। वे अपने को धन्य समझेंगे। उनके हर्ष में नाचने का यही कारण है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र हानि-गमन-नर्तनक्रिया विरोधालंकारः'। हम यहाँ नर्तनक्रिया का कारण बताने से कालिंग कहेंगे / 'यथा' 'यया', 'तथा तथा' और 'पम' 'पमा' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। नास्पशि दृष्टापि विमोहिकेयं दोषरशेषैः स्वभियेति मन्ये / अन्येषु तैराकुलितस्तदस्यां वसत्यसापत्न्यसुखी गुणोघः // 17 // अन्वयः-( यत् ) दृष्टा अपि विमोहिका इयम् स्वभिया अशेषः दोषः न अस्पशि' इति मन्ये, तत् अन्येषु तैः आकुलितः गुणोधः असापत्न्य-सुखी सन् अस्याम् वसति / टोका-( यत् यस्मात् ) दृष्टा दृष्टिगोचरीभूता अपि विमोहिका विमुग्धीकारिका मूर्छाकारिणीति यावत् इयम् दमयन्ती स्वस्य आत्मनो भिया भयेन अशेषैः न शेषो येषां तथाभूतः ( नन व० वी० ) निखिलैरित्यर्थः वोः अवगुणः न अपशि न स्पृष्टा, हमाष्टित्रे आगतापि या लोकान् विमोहयति, स्पर्श सा कि करिष्यतीति भीत्या न केनापि दोषेण सा स्पृष्टा, सा सर्वथा दोषरहिताऽऽस्तीत्यर्थः इति मन्ये जाने, तत् तस्मात् कारणात् अन्येषु दमयन्त्यतिरिक्तस्थानेषु तैः दोषैः