________________ सप्तमः सर्गः 139 आकुलितः आकुलीकृतः पीडित इति यावत् गुणानाम् ओघः समूहः (10 तत्पु० ) न सपत्नः शत्रुर्यस्य तथाभूतस्य ( नञ् ब० वी० ) भावः असापत्न्यम् शत्रुराहित्यम् तेन सुखी सुखयुक्तः ( त० तत्पु० ) सन् अस्याम् दमयन्त्याम् वसति वासं करोति / दोषा हि गुणानां शत्रवः, तैः सह वासे गुणा नित्यसंघर्षेण व्याकुला भवन्ति किन्तु दमयन्त्यां शत्रुभूतस्य कस्यापि दोषस्याभावे गुणा: निष्कण्टकाः सन्तः शान्ति-सुखेन तिष्ठन्तीति भावः / / 17 // ___ व्याकरण-विमोहिका विमोहयतीति वि + /मुह + णिच् + ण्वुल, ज्वल को अक + टाप् / अस्पशि स्पृश् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) आकुलित: आकुलं करोतीति ( नामधातु) आकुल + णिच् + क्त ( कर्मणि)। असापत्न्यम् न सापन्यम् , समानः पतिः यस्येति सपलः तस्य भाव इति सपत्न + व्यङ् / ओघः याख्काचार्यानुसार वह + घन (पृषोदरादित्वात साधुः ) / अनुवाद--( क्योंकि ) दृष्टि में आई हुई भी ( सौन्दर्य से ) मोहित-मूछित कर देने वाली इस (दमयन्ती) का अपने भय के कारण सभी दोषों ने छूआ नहीं है ऐसा मैं मानता हूँ। इसलिए दूसरों में रह रहे उन ( दोषों ) से प्रपीड़ित हुआ गुण-समूह इस ( दमयन्ती) में शत्रु-अभाव के कारण सुखपूर्वक रह रहा है // 17 // टिप्पणी--गुण-दोष सर्वत्र रहते ही हैं और उनका परस्पर नित्य का संघर्ष चलता रहता है / एक-दूसरे के शत्रु जो ठहरे। गुण दोषों से तंग आये हुए रहते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि दोष अपवाद स्वरूप दमयन्ती के पल्ले फटकते ही नहीं / वे डरते हैं कि यह ऐसी जादूगरनी है कि जिसे देखने मात्र से ही लोग विमोहित हो जाते हैं / यदि हम इसे छू लेंगे, तो यह हमारी प्राणलेवाही बन जाएगी। अतः दोषों के न आने से इसमें गुण निष्कण्टक हो आनन्द से रह रहे हैं ! भय से मानो दोषों ने इसे नहीं छूआ है-यह कवि की कल्पना होने से उत्प्रेक्षा है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। ओज्झि प्रियाङ्गघृणयेव रूक्षा न वारिदुर्गात्तु वराटकस्य / न कण्टकैरावरणाच्च कान्तिधूलीभृता काञ्चनकेतकस्य // 18 // अन्वयः-प्रियाङ्गः बराटकस्य रूक्षा कान्तिः घृणया एव औज्झि न तु वारि-दुर्गात्, काञ्चन-केतकस्य च धूलि-भृता कान्तिः घृणया एव औज्झि, न तु कण्टकैः आवरणात् /