________________ सप्तम सर्गः 145 विधिः विदधाति ( जगत् ) इति वि + /धा + किंः ( कर्तरि ) / अगाताम् Vइ + लुङ् इ को गा आदेश / अपूजि पूज् + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / अत्सि / भर्त्स + लुङ् ( कर्मवाच्य ) / ___ अनुवाद-इस ( दमयन्ती ) का केशकलाप और मयूर-कलाप ( परस्पर) वैमत्य होने के कारण ब्रह्मा के पास चल पड़े होंगे क्या ? उस ( ब्रह्मा ) ने इस ( केशकलाप ) की फूलों से पूजा की है क्या ? उस ( मयूर-कलाप ) को अर्धचन्द्र ( चंदा; गलहत्थी ) देकर फटकारा क्या ? टिप्पणी-केश-कलाप और मयूरकलाप ( मोर का पिच्छभार ) दोनों घने होने से अपने-अपने उत्कर्ष के सम्बन्ध में झगड़ा करके निर्णयार्थ ब्रह्मा के समीप चल दिए होंगे। ब्रह्मा का निर्णय केशकलाप के पक्ष में गया होगा। विजयी होने से इह्मा ने उसका फूलों से पूजन किया होगा और पिच्छ को अर्धचन्द्र देकर तिरस्कृत किया होगा / दमयन्ती का केशकलाप घना था और उसपर उसने नाना रंग के फूल भौ ठू से हुए थे। मोर-पिच्छ भी घना और फूलों-जैसे रंगबिरंगे चन्दाओं से शोभित रहता है। लेकिन बेचारा दमयन्ती के केशकलाप के हाथों हार खा बैठा। यह कवि की अद्भुत कल्पना है। इसमें 'अर्धचन्द्र' शब्द का विशेष महत्त्व है। संस्कृत में अर्धचन्द्र शब्द पाँच अर्थों का प्रतिपादक होता है आधा चन्द्रमा जो अष्टमी का होता है और अर्धचन्द्राकार गलहत्थी, नखक्षत'चिह्न, बाणविशेष तथा मोर के पंख की आँख जिसे चन्दा कहते हैं / कवि ने यहां गलहत्थी और चन्दा अर्थ में अर्धचन्द्र शब्द का प्रयोग किया है। चन्दा के रूप में मानो ब्रह्मा ने मयूर-पिच्छ को गलहत्थी देकर दमयन्ती के केश-कलाप के साथ प्रतियोगिता में से भर्सना-पूर्वक हटा दिया है कि तू इसकी बराबर का नहीं / यहाँ श्लोक के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में दो उत्प्रेक्षाओं के परस्पर सापेक्ष होने से संकर है / उपमान-भूत मयूर-कलाप का तिरस्कार होने से प्रतीप है, एवं श्लेषमुखेन विभिन्न अर्धचन्द्रों का अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति भी है / कलाप शब्द में श्लेष है / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। केशान्धकारादथ दश्यभालस्थलार्धचन्द्रा स्फुटमष्टमीयम् / एनां यदासाद्य जगज्जयाय मनोभुवा सिद्धि रसाधि साधु // 23 / / अन्वयः-केशान्धकारात् अथ दृश्य' 'चन्द्रा इयम् स्फुटम् अष्टमी / एनाम् आसाद्य जगतः जयाय मनोभुवा सिद्धिः यत् असाधि तत् साधु /