________________ 140 नैषधीयचरिते टीका-प्रियायाः प्रेयस्याः दमयन्त्याः अङ्गः अवयवैः पराटकस्य बीजकोषस्य ( 'बीजकोषो वराटकः' इत्यमरः ) रूक्षा परुषा अस्निग्धेति यावत् कान्तिः प्रभा घृणया जुगुप्सया एव औज्झि अत्याजि न तु वारि जलम् एव दुर्गम् दुर्गमस्थानम् तस्मात् ( कर्मधा० ) कमलबीजकोषस्य कान्तिः रूमा भवति, न तु स्निग्धा इत्यस्मात् कारणात् धृणया एव तद्देहकान्त्या वराटककान्तिः त्यक्ता न पुनः सा जलदुर्गे तिष्ठति, अत एव पराजेतुं न शक्यते इत्यस्मात् कारणादिति भावः / काञ्चनं काञ्चनवणं पीतमित्यर्थः यत् केतकम् केतक्याः पुष्पम् तस्य ( कर्मधा० ) धूल्या रजसा भृता पूर्णा ( तृ० तत्पु० ) कान्तिः घृणयव औज्झि इति पूर्वतोऽनुवर्तते न तु कण्टकैः तरुनखैः आवरणात् परिवेष्टनात् कारणात्, सौवर्णकेतकीपुष्पकान्तिः धूलीभरिताऽस्तीत्येतस्मात् कारणात् ताम् तद्देहकान्तिः घृणया एव परिजहार, न तु तदावरककण्टकभयादिति भावः // 18 / व्याकरण- प्रिया प्रीणातीति /प्री + क + टाप् / कान्तिः /कम् + क्तिन् (भावे ) / औजिम /उज्झ् + लुङ ( कर्मवाच्य ) / दुर्गम् दुः = दुखेन गम्यते इति दुर् - गम् + उ ( कर्मणि ) / आवरणात् आ + + ल्युट् ( भावे ) / अनुबाद -प्रिया ( दमयन्ती ) के अंगों ने कमल-डोडे की कान्ति को रूखी होने के कारण घृणा से ठुकरा दिया, न कि ( उसके ) जल-प दुर्गम स्थान में रहने के कारण तथा सुनहरे केवड़े के फूल की कान्ति को धूल भरी होने के कारण घृणा से ठुकरा दिया न कि ( उसके ) काँटों घिरी होने के कारण // 18 // टिप्पणी-दमयन्ती की स्निग्ध स्वणिल देह-प्रभा कमलगट्टे मौर केवड़े के फूल की कान्ति से दूर से ही घृणा कर गई। एक थी रूक्ष और दूसरी थी धूल भरी। कमलगट्टा जलीय किले के भीतर सुरक्षित है और केवड़ों की रक्षा हेतु सिपाहियों की तरह चारों ओर काँटे खड़े हैं-इस डर से इसकी देहकान्ति उनसे न लड़ सकी हो, सो बात नहीं। जब ये उसकी बराबरी के थे ही नहीं तब में / भाव यह निकला कि इसकी देह-प्रभा कमलगट्टे की अपेक्षा कितनी ही अधिक स्निग्ध और कनक-केतक की अपेक्षा कितनी ही अधिक स्वर्णिल-गौर वर्ण की थी। विद्याधर ने यहाँ उत्प्रेक्षा कही है, जो हम नहीं समझ पाये / संभव है उन्होंने 'घृणयव' के स्थान में 'घृणयेव' पाठ दे रखा हो, जो उसके लिए उत्प्रेक्षा