________________ सप्तमः सर्गः (नीचे ) गिरती-गिरती-जैसी उस दूत ( नल ) की दृष्टि उस ( दमयन्ती) की जाँघों-रूपी केले के स्तम्भों ( तनों ) को कर ( किरण ) रूपी पर ( हाथ ) से खूब आलिंगन करके देर तक खड़ी रही // 7 // टिप्पणी-बालिकायें यदि किसी गोल घेरेका चक्कर काटती रहें तो उनका सिर रीगने चकराने लगता है और वे गिरने को तय्यार हो जाती हैं / अपने को गिरने से बचाने के लिए वे पास में खम्भे को हाथ से पकड़ लेती हैं और देर तक वहीं खड़ी रहती हैं। यही हाल नल की दृष्टि का भी हुआ। काफी देर तक वह दमयन्ती के नितम्बों का चक्कर काटती रही और बाद उसकी जाँघों पर जा टिकी। यहाँ नितम्ब पर चक्रत्वारोप, ऊरुओं पर रम्भास्तम्भारोप और कर पर करत्वारोप होने से साङ्ग-रूपक है जो कर शब्दों में रिलष्ठ है / उसके साथ 'स्खलन्ती खलु' में उत्प्रेक्षा का संकर है / मल्लिनाथ के अनुसार दृक् पर चेतन बालिका का ब्यवहार-समारोप होने से समासोक्ति भी है। 'तस्य' 'तस्य' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। करेण-आँखों की रश्मि बताकर कवि का यहाँ न्यायसिद्धान्त की ओर संकेत है। उसके अनुसार किसी भी पदार्थ के प्रत्यक्ष के लिए इन्द्रियार्थ-सन्निकर्प आवश्यक होता है / आँख भी बिना संनिकर्ष के ग्रहण नहीं कर सकती। संनिकर्ष सम्बन्ध को बोलते हैं, लेकिन हम देखते है कि आँख पदार्थों के बिना संयोग को दूर से ही ग्रहण कर लेती है। इससे अनुमान किया जाता है कि आँख में रश्मि होती हैं जिसके द्वारा पदार्थों के साथ उसका संनिकर्ष होता है। किन्तु दीये की रश्मि की तरह हमारी आँखों की रश्मि दिखाई नहीं पड़ती हैं अदृश्य रहती है यद्यपि मानवेतर कुछ नक्तचर जीवों-बिल्ली, बाघ, सिंह, उल्लू आदि की आँखों की रश्मि रात को चमकी रहती है ( अधिक के लिए न्यायदर्शन पढ़िये ) / वासः परं नेत्रमहं न नेत्रं किमु त्वमालिङ्गय तन्मयापि / उरोनितम्बोरु कुरु प्रसादमितीव सा तत्पदयोः पपात // 8 // अन्वयः-"(हे दमयन्ति ! ) वासः परम् नेत्रम्, अहं नेत्रम् न किमु ? तत् मया अपि उरोनितम्बोरु आलिङ्गय, प्रसादम् कुरु" इति इव सा तत्पदयोः पपात / टीका-(हे दमयन्ति !) वासः वसनम् उत्तमजातीय-कौशेय-वस्त्रमिति यावत् परं केवलम् नेत्रम् नेत्रशब्दवाच्यम् ( 'स्याज्जटांशुकयोर्नेत्रम्' इत्यमरः)