________________ सप्तमः सर्गः 125 प्रवाह में मानो डूब गई हों / डूबा हुआ व्यक्ति बड़ी देर से बाहर निकल पाता है, दूसरी-उरोज आपस में इतने सटे हुए थे कि बीच में से निकलने की खाली जगह बहुत कम थी, इसी लिए अटककर खिसकते 2 बड़ी कठिनाई से बाहर निकल सकी, तीसरी-कमर इतनी पतली थी कि मानो नीचे दोनों तरफ की खाइयों में गिर जाने के भय से आँखें धीरे 2 पैर रख रही थीं। पहाड़ी यात्री भली भांति जानते हैं कि पहाड़ों की पतली पगडंडी पर जल्दी 2 चलना कितना खतरनाक होता है / 'गिरे तो चकना चूर' इस तरह यहाँ पृथक् 2 तीन उत्प्रेक्षाओं की संसृष्टि है। मुख पर इन्दुत्वारोप में रूपक है / 'मग्ना, लग्ना' में पादादि-गत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र बृत्त्यनुप्रास है / प्रियाङ्गपान्था कूचयोनिवत्य निवृत्य लोला नलदग्भ्रमन्ती। बभौतमां तन्मृगनाभिलेपतमः समासादितदिग्भ्रमेव // 6 // अन्वयः-प्रियाङ्ग-पान्था लोला नलहक निवृत्य निवृत्य कुचयोः भ्रमन्ती तन्मृग 'भ्रमा इव बभौतमाम् / ____टीका-प्रियायाः दमयन्त्याः अङ्गेषु तत्तदवयवेषु ( 10 तत्पु० ) पान्था नित्यपथिकी ( स० तत्पु०) अत एव लोला सतृष्णा ( लोलश्चलसतृष्णयोः' इत्यमरः ) नलस्य दृक दृष्टि; (10 तत्पु० ) निवृत्य निवृत्य प्रत्यागम्य प्रत्यागम्य कुचयोः उरोजयोः भ्रमन्ती भ्रमणं कुर्वती तयोः कुचयोः मृगनाभिलेपः ( स० तत्पु० ) मृगनाभे: कस्तूरिकायाः लेपः (10 तत्पु० ) एव तमः कृष्णवर्णत्वात् अन्धकारः ( कर्मधा० ) तेन समासादितः प्राप्तः ( तृ० तत्पू०) दिग्भ्रमः ( कर्मधा० ) दिशाम् भ्रमः भ्रान्तिः दिङ्मोह इति यावत् (10 तत्पु० ) यया तथाभूता ( ब० वी० ) इव बभौतमाम् अतितरां बभी शुशुभे इति यावत् / अन्योऽपि जनः निशान्धकारे दिङ्मोहमवाप्तः सन् निवृत्त्य पुनः पूर्वस्थाने एवागच्छति / नल नयने सतृष्णं वारं-वारं तस्या उरोजी पश्यतः स्मेति भावः // 6 // व्याकरण-पान्था पन्थानं नित्यं गच्छतीति पथिन् + ण, पन्थादेश + टाप् चाण्डू पण्डित और विद्याधर पान्थी' पाठ दे रहे हैं, जो व्याकरण से अशुद्ध है, क्योंकि ण प्रत्यय को ङीप् या ङीष् नहीं होता है पथिन् पथ्यते ( गम्यते ) अत्रेति /पथ + इन् ( अधिकरणे) / निवृत्य निवृत्य आभीक्ष्ण्य मे द्विरुक्ति / बभौतमाम् /भा + लिट् + तमप् ( अतिशय में ) + आम् ( स्वार्थ में ) /