________________ 124 नैषधीयचरिते जलौघ से वेचारे नयन डर गये कि अब बहे तब बहे / कुच-रूप में उन्हें दो ऊँचे गोल टीले मिल गये / वहीं चढ़कर शरण ले ली। इसे हम समस्त वस्तुविषयक रूपक मान लेते, लेकिन कवि एक कमी रख गया और वह यह कि वह कुचों पर ऊंचे टीलों का आरोप नहीं दिखा सका, अतः रूपक पूरा न होकर एकदेशी रह गया। रूपक यहाँ श्लिष्ट है। विद्याधर यहाँ अतिशयोक्ति भी मानते हैं, क्योंकि आलोक, वेला और रस के 'भिन्न-भिन्न होने पर भी यहाँ अभेदाध्यवसाय कर रखा है / मल्लिनाथ नयनों पर चेतनव्यवहार समारोप होने से समासोक्ति कहा कर यह उत्प्रेक्षा-ध्वनि भी मानते हैं कि मानो आँखें बह जाने से डरकर कुचों पर जा टिकी / शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / मग्ना सुधायां किमु तन्मुखेन्दोर्लग्ना स्थिता तत्कुचयोः किमन्तः / चिरेण तन्मध्यममुञ्चतास्य दृष्टि: क्रशोयः स्खलनाद्भिया नु / / 5 / / अन्वयः-अस्य दृष्टिः तन्मुखेन्दोः सुधायाम् मग्ना किमु ? तत्कुचयोः अन्तः लग्ना ( सती ) स्थिता किम् ? क्रशीयः तन्मध्यम् स्खलन-भयात् नु चिरेण अमुञ्चत् ? टीका-अस्य नलस्य दृष्टि: नयनम् तस्याः दमयन्त्याः मुखम् आननम् (ष. तत्पु० ) एव इन्दुः चन्द्रः तस्य ( कर्मधा० ) सुधायाम् अमृते मग्ना डिता किमु ? अथबा तस्याः दमयन्त्याः कुचयोः उरोजयोः अन्तः अन्तराले मध्ये इति यावत् लग्ना निरवकाशत्वात् गमनमार्गमलब्ध्वा स्थिता किम् ? क्रशीयः अतिशयेन कृशम् तस्याः दमयन्त्याः मध्यम् कटिम् ( ष. तत्पु०) स्खलनात् पतनात् भयात् भीतेः कारणात् नु किम् चिरेण चिरकालानन्तरम् अमुञ्चत मुमोच ? // 5 // व्याकरण-मग्ना मस्ज + क्त (कर्तरि त को न + टाप् / लग्ना लग् + क्त ( कर्तरि ) त को न + टाप् / क्रशीयः कृश + ईयसुन् ( अतिशयार्थ में ) ऋ को र / स्खलनात् भयार्थ में पञ्चमी। अनुवाद-उन ( नल ) की दृष्टि उस ( दमयन्ती के मुख-चन्द्र के अमृत में डूब गई हैं क्या ? उसके कुचों के बीच में फंसी ठहर गई है क्या ? गिर पड़ने के भय से देर बाद उसकी पतली कमर को छोड़ रही थी क्या ? टिप्पणो-नल की आँखें देर तक दमयन्ती के मुख उरोज और कमर को देखती रही। इस पर कवि की तीन कल्पनायें हैं, पहली-मुख चन्द्र के अमृत