________________ 116 नैषधीयचरिते इत्थं पुनर्वागवकाशनाशान्महेन्द्रदूत्यामपयातवत्याम् / विवेश लोलं हृदयं नलस्य जीवः पुनः क्षीवमिव प्रबोधः // 11 // अन्वयः-इत्थम् पुनः वागवकाश-नाशात् महेन्द्र-दूत्याम् अपयातवत्यां (सत्याम्) नलस्य जीवः लोलम् हृदयम् प्रबोधः लोलम् क्षीबम् इव विवेश // 111 // टीका-इत्थम् उक्तप्रकारेण पुनः भूयः वाचः कथनस्य अवकाशस्य अवसरस्य नाशात् अपगमात् ( उभयत्र ष. तत्पु० ) महेन्द्रस्य देवराजस्य दूत्याम् शम्बल्याम् अपयातवत्याम् अपगतायां सत्याम् नलस्य श्रीवः प्राणः लोलं चञ्चलं हदयम् प्रबोधः मानस-स्वस्थता अविक्षिप्तता विवेक इति यावत् लोलम् क्षीवम् मदिरा मत्तम् पुरुषम् ('मत्ते शीण्डोत्कटक्षीबाः' इत्यमरः ) इव पुनः भूयः विवेश आगतवान् / चिन्ता-विचलित-हृदयस्य नलस्य गतप्रायाः प्राणाः तथा पुनरागताः यथा मत्तम् प्रबोधः पुनरागच्छतीति भावः // 111 // व्याकरण-इत्थम् इदम् + थम् (प्रकाश वचने ) / नाश: नश् + घन (भावे) अपयातवत्याम् अप + या+ क्तवत्, ( कतरि)+ ङीप् / जीव: /जीव + अच् ( भावे) / क्षीवः क्षीब् + क्तः ( कर्तरि ) / 'अनुपसर्गात फुल्ल-क्षीब० (8 / 2 / 54 ) से निपापित / / अनुवाद-इस प्रकार दोबारा बोलने का अवसर समाप्त कर दिए जाने से ( इन्द्र की) दूती के चले जाने पर नल के चंचल हृदय में इस तरह फिर प्राण आ गया जैसे चंचल शराबी को होश आ जाती है / / 111 // टिप्पणी-हम पीछे श्लोक 89 में देख आये है कि नल का हृदय कितना वेचैन हो रहा था कि न दूत-कर्म करके यश ही मिला, न दमयन्ती ही मिली। न घर का रहा न घाट का। लेकिन इन्द्र की दूती के विफल हो चले जाने पर उन्हें हृदय में आशा बंध गई कि दूत-कर्म का अवसर मिल गया है। यदि उसमें सफल हुआ तो जगत् में अविनश्वर यश है, विफल हुआ तो दमयन्ती धरीधरायी है ही। दोनों हाथों में लड्डू है / इसलिए जान में जान आ गई / क्षीब के साथ तुलना में उपमा, 'जीव:' 'क्षीब' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। श्रवणपुटयुगेन स्वेन साधूपनीतं दिगधिपकृपयाप्तादीदृशः संविधानात् / अलभत मधु बालारागवागुत्थमित्थं निषधजनपदेन्द्रः पातुमानन्दसान्द्रम् // 112 //