________________ सप्तमः सर्गः प्रकृष्टेन हर्षेण या अश्रु-परम्परा (तृ० तत्पु० ) अश्रुणः बाष्पस्य परम्परा ओघ: (ष० तत्पु०) तस्याम् ममज्जतुः / समुद्र जलौघे च मज्जनं स्वाभाविकमेव // 2 // व्याकरण-दृक् पश्यतीति /दृश + क्विप् ( कर्तरि ) / प्रथम यास्काचार्यानुसार 'प्रकृष्टतम' इति प्र + तमम् , त को थ निपातित / समुद्रः यास्कानुसार समुद्रवन्त्येनमापः समुन्नमन्तीतिवा। प्रमोदः प्र + मुद् + घञ् / ममज्जतुः मज्ज +लिट् / अनुवाद-उस नरेश ( नल ) की आँखें पहले तो प्रिया के अङ्ग-अङ्ग ( के सौन्दर्य ) में डूबी, तब हृदय-गत आनन्द रूपी अमृत के समुद्र में डूबी और उसके बाद आनन्दाश्रप्रवाह में डूबी // 2 // टिप्पणी-नल की आँखों ने दमयन्ती के अङ्ग अङ्ग का सौन्दर्य निहारा तो उनके हृदय में आनन्द का समुद्र उमड़ पड़ा। बाद को आँखें आनन्द के आंसुओं के प्रवाह में डूब गई और आगे देख न पाई। भाव यह कि उसके अङ्ग-अङ्ग में अद्भुत सौन्दर्य-छटा दमक रही थी। जिसे देख नल युग्ध हो गया। यहाँ एक ही दृग-रूपी आधेय को क्रमशः प्रिया सुधा-समुद्र और अश्रु-परम्परा-रूपी अनेक आधारों में बताने से पर्याय अलंकार है। आनन्द पर सुधा-समुद्रत्वारोप होने से रूपक है 'प्रति' 'प्रती' में छेक, 'तस्य' 'नृपस्य' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। ब्रह्माद्वयस्यान्वभवत्प्रमोदं रोमान एवाग्रनिरीक्षितेऽस्याः। यथोचितीत्थं तदशेषदृष्टावथ स्मराद्वैतमुदं तथासौ // 3 // अन्वयः-असौ अस्याः रोमाने एव अग्रनिरीक्षिते सति ब्रह्माद्वयस्य प्रमोदम् अन्वभवत्, अथ इत्थम् तदशेषदृष्टौ यथा औचिती तथा स्मराद्वैतमुदम् ( अन्वभवत् ) / टीका-असौ नल: अस्याः दमयन्त्याः रोम्णः शरीर-लोम्नः अग्रे अग्रभागे (10 तत्पु० ) एव अग्रे प्रथमम् निरीक्षिते दृष्टे (स० तत्पु० ) सति ब्रह्मणा ( सह) अद्वयम् अद्वैतम् ऐकात्म्यमिति यावत् (तृ० तत्पु० ) तस्य प्रमोदम् आनन्दम् अन्वभवत् अनुभूतवान्, अथ अनन्तरम् इत्थम् एवम् तस्याः दमयन्त्याः अशेषदृष्टि: (10 तत्पु० ) न शेषः यस्यां तथाभूता ( ब० वी० ) चासो दृष्टिः ( कर्मधा० ) तस्याम् कात्स्न्येन दमयन्त्यां विलोकितायां सत्या