________________ षष्ठः सर्गः मन्दाकिनी अपनी दूती को सौंपदी जो उसे तीव्र गति से पहुंचा बैठी / मन्दाकिनी तीव-गति होती ही है। इस तरह कवि की तीन कल्पनाओं में यहाँ तीन उत्प्रेक्षायें हैं, जिनकी संसृष्टि हो रखी है / विद्याधर अतिशयोक्ति मान रहै हैं जो हमारी समझ में नहीं आती। 'रास्थ' 'रास्थम्' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भूयोऽर्थमेनं यदि मां त्वमात्थ तदा पदावालभसे मघोनः / सतीव्रतैस्तीवमिमं तु मन्तुमन्तर्वरं वज्रिणि मार्जितास्मि // 110 / / अन्वयः-( है इन्द्रदूति ) त्वम् भूयः एनम् अर्थम् यदि माम् आत्थ, तदा मघोनः पदी आलभसे / ( अहम् ) संतीव्रतैः वज्रिणि अन्तः तीव्रम् इमम् मन्तुम् तु वरं मार्जितास्मि ( न तु ते वार्ता श्रोष्यामि ) / ___टीका-( हे इन्द्रदूति ) त्वम् भूयः पुनः एनम् एतम् इन्द्रवरणरूपम् अर्थम् यदि चेत् माम् आत्थ कथयसि, तदा तर्हि मघोनः इन्द्रस्य पदौ चरणी आलभसे स्पृशसि अर्थात् इन्द्रस्य शपथं तुभ्यं ददामि त्वम् इन्द्रवरणरूपम् अर्थ मा मह्यं कथय / अहम् सत्याः प्रतिव्रतायाः व्रतैः नियमः ( 10 तत्पु० ) वञिणि इन्द्र विषये अन्तः अन्तःकरणे तीव्रम् दुःसहम् इमम् मन्तुम् अपराधम् ('आगोऽपराधो मन्तुश्च' इत्यमरः) तु वरम् सम्यक् माजितास्मि प्रोच्छितास्मि, निजपातिव्रत्येन प्रतिकरिष्यामीति भावः / / 110 // व्याकरण-आत्थ/+ लट् मध्यम पु०, जू को आह आदेश और ह को थ / वम्री वज्रमस्यास्तीति वज्र + इन् ( मतुबथं)। मार्जितास्मि - मृज + लुट् उत्तम पु० / अनुवाद-(हे दूती!) तुमने यदि फिर यह ( इन्द्रवरणवाली) बात कही, तो तुम्हें इन्द्र की सौगन्ध / अच्छा है इन्द्र के प्रति इस अपराध को मैं हृदय में पातिव्रत्य द्वारा पोंछलूँ ( लेकिन सुनूँगो नहीं ) // 110 / / टिप्पणी-दमयन्ती के कहने का भाब यह है कि इन्द्र अन्तर्यामी देव हैं / मेरे हृदय को भलीभाँति जानते ही हैं कि वह नल को समर्पित हो चुका है और अब दूसरे किसी को पति मानने से रहा, इसलिए मेरे इस पतिव्रत धर्म के कारण प्रसन्न हो वे उन्हें न वरने के मेरे अपराध को क्षमा कर देंगे। 'सतीव्र' 'स्तीव' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है /