________________ नैषधीयचरिते उसका मधुर वचनामृत पान करने का अवसर ही कैसे आता। यहाँ विद्याधर रूपक कह रहे हैं / वे 'वाक्' पर मधुत्वारोप मानते हैं, लेकिन कवि ने वाक् को मधु न कहकर 'वागुत्थ' को मधु कहा है। कानों पर पात्रत्वारोप गम्य है। है। सन्ति होने से कवि ने यहाँ छन्द वदल दिया है। यह प्रतिपाद में 15 वर्गों का मालिनी छन्द है, जिसका लक्षण 'ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः' है। श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालंकारहीरः सुतं / . श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / षष्ठः खण्डनखण्डतोऽपि सहजात्क्षोदक्षमे तन्महा काव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 113 // अन्वयः-कविराज'''यम्, पूर्ववत्, सहजात् खण्डनखण्डतः अपि क्षोदक्षमे नलस्य चरिते तन्महाकाव्ये अयम् निसर्गोज्ज्वलः षष्ठः सर्गः ब्यगलत् / टीका-कविराज""यम् पूर्ववदेव टीका ज्ञेया; सहजात् सहोदरात् भ्रातुरित्यर्थः खण्डनखण्डतः खण्डनखण्डखाद्यनामकात् ग्रन्थात् तदपेक्षयेत्यर्थः अपि क्षोदस्य आलोचनस्य क्षमे समर्थे ( 10 तत्पु० ) नलस्य चरिते नैषधीयचरिते समाप्तिम् अगात् // 113 // इति मोहनदेवपन्त प्रणीतायां छात्रतोषिण्यां षष्टः सर्गः। व्याकरण-सहजात् सहजायते इति सह + /जन् + डः / क्षोदः क्षुद् + घन् / क्षमः क्षमते इति + क्षम् + अच् ( कर्तरि ) / अनुवाद - कविराज जन्म दिया, उसके 'नैषधीय चरित' महाकाव्य में, जो अपने सहोदर 'खण्डनखण्डखाद्य' ग्रन्थ की भी अपेक्षा आलोचना का ( अच्छी तरह ) सामना कर सकता है, निसर्ग से उज्ज्वल छठा सगं समाप्त हुआ। मोहनदेव पन्त-प्रणीत 'छात्रतोषिणी' में छठा सर्ग समाप्त /