________________ षष्ठः सर्गः टिप्पणी-कोई भी ऐन्द्रिय और भौतिक सुख चाहे वह लौकिक हों अथवा स्वर्गीय हों, दीखने-दीखने में ही सुन्दर लगते हैं लेकिन परिणाम उनका अच्छा नहीं रहता। यह तो रोगी के लिए लड्डू-पेड़ा-जैसा कुपथ्य है। इसी लिए भत हरि ने 'भोगे रोगभयम्' और भारवि ने 'आपात-रम्या विषयाः पर्यन्तपरितापिनः' कहा है। तभी तो विद्वान लोग इन भौतिक सुखों को लात मारकर आध्यात्मिक सुख-मुक्ति-की ओर उन्मुख होते हैं। कल्पप् प्रत्यय सादृश्यवाचक होने से यहाँ उपमा है / 'तिष्ठत्युपतिष्टते' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इतीन्द्रदत्याः प्रतिवाचमर्धे प्रत्युह्य सैषाभिदधे वयस्याः / किचिद्विवक्षोल्लसदोष्ठलक्ष्मीजितापनिद्रद्दलपङ्कजास्याः // 10 // अन्वयः- इति इन्द्रदूत्याः प्रतिवाचम् अर्धे प्रत्युह्य सा एषा किञ्चिद्...... जास्याः वयस्याः अभिदधे / __टीका-इति एवम् इन्द्रस्थ दूत्याः सम्बन्ध-विवक्षायां षष्ठी इन्द्रदूत्यामित्यर्थः प्रतिवाचम् प्रतिवचनम्, उत्तरमिति यावत् अर्धे अर्धभागे मध्ये एवेत्यर्थः प्रत्युह्य विच्छिद्य, परिसमाप्य स एषा दमयन्ती किञ्चित् किमपि यथा स्यात्तथा विवक्षया वक्तुमिच्छया उल्लसन्तौ स्फुरन्तौ ( त० तत्पु० ) यो ओष्ठौ दन्तच्छदी (कर्मघा०) तयोः लक्ष्म्या शोभया ( 10 तत्पु० ) जितम् पराभूतम् (तृ० तत्पु० ) अपनिद्रहलम् अपनिद्रन्ति निद्रां त्यजन्ति विकसन्तीत्यर्थः दलानि ( कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् ( ब० वी० ) यत् पङ्कजम् कमलं ( कर्मधा० ) तद्वत् आस्यम् मुखम् ( उपमान तत्पु०) यासां तथाभूताः (ब० वी०) वयस्याः सखी: अभिवधे कथितवती / दूतीं प्रति दीयमानमुत्तरं मध्ये निरुध्य सा किमपि वक्तुमिच्छन्तीः स्वसखी:प्राहेति भावः // 101 // व्याकरण-प्रतिवाचम् प्रतिगता वाक् इति प्रति + वाक् / प्रत्युह्य प्रति + Vऊह, + ल्यप, ऊको ह्रस्व / विवक्षया Vवच् + सन् + अ + टाप् / अपनिटत् अप + V निद्र + शतृ / पङ्कजम् पङ्कात् जायते इति पङ्क + V जन् + डः ! अभिदधे अभि + Vधा + लिट् ( कर्तरि ) / ___ अनुवाद-इस प्रकार इन्द्रदूती के प्रति ( दिये जा रहे ) उत्तर को आधे में ही रोककर वह ( दमयन्ती) सखियों को बोल उठी-जिनका मुख उस कमल के समान था, जिसकी खिलती हुई पंखुड़ियों को कुछ कहने की इच्छा से फड़कते हए ( उनके ) ओंठ ( अपनी ) शोभा से पराजित किये हुए थे // 11 //