________________ षष्ठः सर्गः अच्छे लगने वाले नर-नल-को नहीं छुड़वा ( सक ) ते मोक्ष से निम्नस्तर के त्रिवर्ग-धर्म, अर्थ और काम को न छोड़ते हुए लोगों को तुम नहीं देख रही. हो क्या ? // 105 // टिप्पणी-शास्त्रकारों ने मानव-जीवन के ध्येय बताये हैं, जिन्हें 'चतुर्वर्ग' अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहते हैं। इनमें मोक्ष को सर्वोत्तम माना गया है, लेकिन लोग भला कहाँ उसकी ओर जाते हैं ? त्रिवर्ग के चक्कर में ही फंसे रहते हैं। यह क्यों ? रुचि के कारण जो प्राक्तन संस्कारों की शृङ्खला से बँधी चली आती रहती हैं / त्रिवर्ग में दोष होने पर भी उसे कोई नहीं छोड़ता, इसलिए दमयन्ती का कहना है-भले ही इन्द्र में अधिक गुण हों नल में कम तथापि मैं तो नल पर ही मर रही हूं। राग-गुण दोषों का लेखा-जोखा नहीं करता है। वह अन्धा होता है ( Love is blind ) / महादेव में कितने ही अवगुण बताने वाले ब्रह्मचारो को पार्वती ने भी तो यही कहा था- 'न काम वृत्तिर्वचनीयमीक्षते'। मल्लिनाथ के अनुसार यहां दृष्टान्त अलंकार है / नल को न छोड़ना और त्रिवर्ग को न छोड़ना-इन दोनों के प्रतिपादक वाक्यों में वे बिम्बप्रतिबिम्बभाव मान रहे हैं लेकिन धर्मभेद नल और त्रिवर्ग में ही है, छोड़ना में धर्मभेद नहीं है। नल को छोड़ने का ( गुणाधिक्य ) कारण होने पर भी छोड़ना न होने से हम विशेषोक्ति भी कहेंगे। विद्याधर ने विभावना कहा है। उनका अभिप्राय यह रहा हो कि बिना कारण के दमयन्ती इन्द्र को छोड़ रही है / 'हर' 'हरे' में छेक, 'लोक' 'लोक' में यमक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आकीटमाकैटभरि तुल्यः स्वाभीष्टलाभात्कृतकृत्यभावः। भिन्नस्पृहाणां प्रति चार्थमर्थं द्विष्टत्वमिष्टत्वमपव्यवस्थम् // 106 / / अन्वयः-आकीटम् आकैटभरि स्वाभीष्ट-लाभात् कृतकृत्यभावः तुल्यः / भिन्न-स्पृहाणाम् अर्थम् अर्थम् प्रति द्विष्टत्वम् इष्टत्वम् च अपव्यवस्थम् (भवति ) / टीका-कोटम् आ = अभिव्याप्य, आरभ्येति यावत् ( अव्ययी० ) कैटभस्य राक्षस-विशेषस्य वैरिणम् शत्रु विष्णुम् आ = पर्यन्तम् ( अव्ययी० ) कीटमारभ्य विष्णुपर्यन्तमित्यर्थः सर्वस्यापि जीवजगतः स्वम् स्वकीयम् यत् इष्टम् अभीप्सितम् ( कर्भधा० ) तस्य लाभात प्राप्तेः कृतं कृत्यम् करणीयम् ( कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० वी०) तस्य भावः (ष० तत्पु०) कृतकृत्यत्वमित्यर्थः