________________ षष्ठः सर्गः 107 क्रमेलकं निन्दति कोमलेच्छुः क्रमेलकः कण्टकलम्पटस्तम् / प्रीती तयोरिष्टभुजोः समायां मध्यस्थता नैकतरोपहासः // 104 // अन्वयः--- कोमलेच्छ: क्रमेलकम् निन्दति, कण्टकलम्पट: क्रमेलकः ( च ) तम् ( निन्दति ) इष्टभुजोः तयोः समायाम् प्रीती एकतरोपहासः न ( उचितः) मध्यस्थता ( एवोचिता ) / ____टीका-कोमलं मृदुम् पदार्थम् इच्छु: अभिलाषुकः ( मधुपिपासुवत् द्वि० तत्पु०) जीव इति शेषः क्रमेलकम् उष्ट्रम् ( 'उष्ट्र क्रमेलक मय-महाङ्गाः' इत्यमरः) निन्वति गर्हते, कण्टकेषु वृक्षशिताग्रेषु लम्पट: लोलुपः ( स० तत्पु० ) ( 'लोलुपं लोलुभं लोलं लम्पटं लालसं विदुः'। इति हलायुधः ) क्रमेलकः तम् कोमलेच्छम् निन्दति / इष्टं स्वरुचिकरं कण्टकं वा घासादिकं वा भुंक्ते इति तथोक्तयोः ( उपपद तत्पु० ) तयोः क्रमेलक-गवा-श्वाद्ययोः समायां समानायां प्रीतो प्रसन्नतायाम् रुचौ वा एकतरस्य द्वयोमध्ये अन्यतरस्य उपहास: आक्षेपः न उचित इतिशेषः किन्तु मध्यस्थता औदासीन्यम् आश्रयणीयमिति शेषः / सर्वेऽपि जीवाः स्व-स्व-पूर्वजन्मकृतकर्मनिर्मितस्वभावानुसारं जगतो वस्तूनि रोचयन्ति अभिद्र - ह्यन्ति च / तेषां रुचिभेदमधिकृत्य एकतरस्य समालोचना-गर्हा स्तुतिर्वा-नास्माभिः कार्या तटस्थैरेव भाव्यमिति भावः // 104 // व्याकरण- इच्छुः / इष् + उ ( कर्तरि ) 'न लोकाव्यय०' से षष्टी निषेध होने पर द्वि० / भुजोः /भुज + क्विप ( कर्तरि)। मध्यस्थता मध्ये तिष्ठतीति मध्य +/स्था + कः, तस्य भावः इति + तल + टाप् / एकतरः द्वयोः अन्य इति एक + तरप् / अनुवाद-मृदु ( आहार ) चाहने वाला ( जीव ) ऊँट की निन्दा किया करता है और ऊँट उस ( मृदुभंक्षी ) की ( निन्दा किया करता है ) (अपना 2) अभीष्ट ( आहार ) खानेवाले उन दोनों को एक-जैसी प्रीति होती रहने से उनमें से किसी एक का उपहास नहीं होना चाहिए ), तटस्थता रखनी चाहिए // . 104 // टिप्पणी-पिछले दो श्लोकों में कवि ने नियतिवाद का सामान्यतः ही प्रतिपादन किया था, उसका समन्वय नहीं दिखाया था। इस श्लोक में वह समन्वय कर रहा है। पूर्वकर्मानुसार किसी जीव को ऊँट की योनि मिली है। उसे इस योनि को देने वाले कर्म ने ही उसका उष्ट्रजातीय स्वभाव बना कर