________________ नैषधीयचरिते कांटों के भक्षण में रुचि उत्पन्न कर दी, और घास फल आदि से घृणा। फलतः वह कांटे ही खाया करता है / विष्ट-कीट को भी विष्टा ही पसन्द है। गाय आदि 'घास खाते हैं / यही बात मानव जगत की भी समझ लीजिए। इसीलिए कहावत बनी हुई हैं-'भिन्नरुचिहि लोकः' / नास्तिकदर्शनों में से चार्वाकों को छोड़कर बौद्ध, जैन तथा अन्य सभी आस्तिकदर्शन नियतिवाद अथवा पूर्वजन्म के प्रबल समर्थक हैं। दमयन्ती का अपनी सखियों को कहने का अभिप्राय यह है कि पूर्वजन्म के संस्कारानुसार मुझे नल अभाष्ट हैं इन्द्र अभीष्ट नहीं; तुम इन्द्र-पक्ष न लो, तटस्थ सी रहो / विद्याधर ने यहाँ हेतु अलंकार कहा है क्योंकि यहाँ कारण कार्य-सहित वर्णन किया गया है। 'क्रमेलकं' 'क्रमेलकः' में छेक अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। गुणा हरन्तोऽपि हरेनरं मे न रोचमानं परिहापयन्ति / न लोकमालोकयथापवर्गात्त्रिवर्गमर्वाञ्चसमुञ्चमानम् // 105 // अन्वयः-हरन्तः अपि हरेः गुणाः मे रोचमानम् नरम् न परिहापयन्ति / { हे सख्यः / ) अपवर्गात् अर्वाञ्चम् त्रिवर्गम् अमुञ्चमानम् लोकम् (यूयम् ) न आलोकयथ किम् // 105 // टीका-हरन्त: मन आकर्षन्त: अपि हरेः इन्द्रस्य गुणा: ये तद्-दूत्या प्रति पादिताः मे मह्यम् रोधमानम् रुचिकरम् नरम् अथ च रलयोरभेदात् नलं न परिहापयन्ति न परिहातुं प्रेरयन्ति परित्याजयन्तीत्यर्थः यतः अपवर्गात् मोक्षात् ( 'मोक्षोऽपवर्गः' इत्यमरः ) अर्वाञ्चम् निम्नम् मोक्षापेक्षया हीनमित्यर्थः त्रिवर्गम् त्रयाणां धर्मार्थकामानाम् वर्गम् समूहम् (10 तत्पु० ) अमुञ्चमानम् न परित्यजन्तम् लोकम् संसारम् यूयम् न आलोकयथ न पश्यथ किम्, अपितु पश्यथ एवेति काकुः चतुर्वर्गे उत्कृष्टं मोक्षम् अनादृत्य लोकाः तदपेक्षयाऽपकृष्टम् त्रिवर्गमुपाददते इति सर्वजनप्रत्यक्षमेव, तद्वत् अहमपि इन्द्र परित्यज्य नलमेवोपाददे इति भावः // 105 // ___ व्याकरण-रोचमानम् / रुच + शानच ( कर्तरि ) रुच्यर्थ में 'मे' का च० / परिहापयन्ति परि + हा + णिच् + लिट, पुगागम ! अपवर्ग: अप + वृज + घन ( भावे ) / अर्वाञ्चम् अवरे निम्नदेशे अञ्चति = गच्छतीति अवर + /अञ्च् + क्विन् अर्वाच् (पृषोदरादित्वात् साधुः ) / अनुवाद-( सखियो ! ) ( मन ) हरण करते हुए भी इन्द्र के गुण मुझे