________________ नैषधीयचरिते प्रश्नस्य उपालम्भस्य वा योग्यः ? न कोऽपीति काकुः / सा नियतिः च अचेतना जडा अस्ति अतः वाचम वाणीम् प्रश्नामिकाम् उपालम्भात्मिकां वा न अर्हेत जडा नियतिरपि नोपालम्भयोग्येत्यर्थः / वक्ता आलोचकः जडनियस्याः उपालम्भक इति यावत् तु पुनः वक्त्रस्य मुखस्य श्रमः क्लमः ( 10 तत्पु०) एव कम क्रियाम् / कर्मधा०) भुङ्क्ते प्राप्नोतीत्यर्थः / जनो यत्किमपि करोति, तन्नियत्याः प्रेरणया करोति, न स्वातन्त्र्येण; नियतिरपि पूर्वजन्मकृतशुभाशुभकर्मसंस्काररूपा जडा, तस्मात् स जनः तत्प्रेरिका नियतिरपि नोपालब्धुम् वा समालोचयितुं वा प्रष्टु वा योग्येति भावः / / 103 // व्याकरण-नियतिः नियम्यतेऽनयेति नि + /यम् + क्तिन् (करणे) / परवति पर + मतुप म को व / संविदान: सम्यक वेत्तीति सम् + /विद् + शानच् 'समो गम्वृच्छिभ्याम्' ( 1 / 3 / 29 ) के अन्तर्गत 'विदितच्छिस्वरतीनाम् उपसंख्यानम्' वार्तिक से आत्मने / चेतना चेतयतीति /चित् + ल्युट् (कर्तरि ) / वक्ता वक्तीति Vवच् + तृच् ( कर्तरि ) / वक्त्रम् वक्ति अनेनेति वच् + ष्ट्रन ( करणे ) / अनुवाद-सभी ( लोगों ) के सदा नियति ( भाग्य ) के अधीन रहने के कारा विद्वान तक भी कोई ( व्यक्ति ) उलाहने का पात्र नहीं है / और नियति जड़ है, ( अतः ) उसे उलाहना देना ठीक नहीं। ( उलाहने के रूप में ) बोलने वाला व्यक्ति मुंह थकाने का काम करता है // 103 // टिप्पणी-यहाँ कवि पुनरुक्ति कर गया है। जो उसने पिछले श्लोक में कहा है, शब्दान्तर में यहाँ उसे ही दोहरा रखा है / सारे जगत् के निर्माण, जीवों की सृष्टि, उनको मिलने वाली विविध योनियों तथा उनके स्वभाव विवाह, मृत्यु आदि कार्यजात के पीछे नियति का ही हाथ है। गीताकार भी अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं -स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा / कतु नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत् / (18560) / इसी तरह जब दुर्योधन को पूछा गया कि तुम धर्म का मार्ग छोड़ अधर्म की ओर क्यों प्रवृत्त हो रहे हो ? उसका भी यही उत्तर था-'जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः। केनापि देवेन हृदि स्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा चरामि // ' श्लोक में पूर्ववत् काव्यलिङ्गालंकार है / 'योग' 'योग्यः' 'वक्ता' 'वक्त्र' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है / पुनरुक्ति दोष स्पष्ट ही है /