________________ षष्ठः सर्गः कल्पना कर रखा है, इसलिए उत्प्रेक्षा है जिसका वाचक खलु शब्द है। 'वक्षो' 'दक्षो' में पदान्तर्गत अन्त्यानुप्रास, 'स्रज' 'सृजन' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। यत्रावदत्तामतिभीय भैमी त्यज त्यजेदं सखि ! साहसिक्यम् / त्वमेव कृत्वा मदनाय दत्से वाणान्प्रसूनानि गुणेन सज्जान् // 68 // अन्वयः- यत्र भैमी अतिभीय ताम् अवदत्--सखि ! इदम् साहसिक्यम् त्यज बाणान् गुणेन सजान् कृत्वा मदनाय त्वम् एव दत्से' / टोका-यत्र यस्यां सभायाम् भैमी भीमनृपपुत्री दमयन्ती अतिभीय अतिशयेन भीत्वा ताम् मालाकारिणी सखीम् अवदत् अवोचत्--'हेसखि आलि ! इदम् मालागुम्फनरूपं साहसिक्यम् साहसकायं असमीक्ष्यकारित्वमिति यावत् त्यज, मुञ्च, मुञ्च, ( यतः ) प्रसूनानि पुष्पाणि बाणान् गुणेन सूत्रेण अथ च मौर्या सज्जान् सक्तान् सन्नद्धानिति यावत् कृत्वा मदनाय कामाय त्वम् एव वत्से प्रयच्छसि / मालां ग्रथ्नती त्वं पुष्पाणि शरान् ज्यासक्तान् कृत्वा मदुपरि प्रहतु' दद ना कामस्य साहाय्यमाचरसीति कोहक ते सखीत्वमिति भावः / / 68 // व्याकरण-अतिभीय-अति + / भी + ल्यप् / साहसिक्यम् सहसा वर्तते इति सहसा + ठक् ( 'ओजः सहोम्भसा वर्तते' 4 / 4 / 27) साहसिकी तस्याः भाव इति साहसिकी + ष्यन, पुंवद्भाव / त्यज, त्यज भये द्विरुक्तिः / प्रसूनानि इसके लिए पिछला श्लोक देखिए / सज्जान् सज्जतीति / सस्ज + अच् (कर्तरि)। अनुवाद---जहाँ भीमनन्दिनी अत्यन्त भयभीत हो उस माला गूंथने वाली सखी) को बोली-'सखी! यह साहसिक कार्य छोड़ दे, छोड़ दे, ( क्योंकि ) पुष्परूप बाणों को गुण (धागा, प्रत्यञ्चा) से संजोकर कामदेव के लिए तू ही तो दे रही है // 68 // टिप्पणी-डोरे से गूंथे फूलों पर दमयन्ती को प्रत्यञ्चा पर चढ़े कामदेव के षुष्य-बाणों का भ्रम हो जाता है, जिससे वह सखी को फटकारने लगती है कि तू अच्छो सखी बनी है, जो मुझ पर प्रहार हेतु पुष्प बाणों को प्रत्यञ्चा पर चढ़ाकर देती हुई कामदेव की सहायता कर रही है / यहाँ गुण शब्द श्लिष्ट है / फूलों का गुण-धागा और है तथा वाणों का गुण-प्रत्यञ्चा और है / कबि ने दोनों का अभेदाध्यवसाय कर रखा है, अतः भेदे अभेदातिशयोक्ति अलंकार है / त्यज, स्यज में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है /