________________ षष्ठः सर्गः टिप्पणी-प्रश्न उठता है कि जब नल से अभी विवाह ही नहीं हुआ, तो दूती द्वारा इन्द्र-स्तुति की बातें सुनना दमयन्ती को सतीधर्म-विरोधी कैसे हो गई? इसका उत्तर वह यह देती है कि उसने मन में नल को बरण पहले से ही कर रखा है, कायिक वरण न भी हुआ तो कोई बात नहीं / वास्तव में वाचिक और कायिक विवाहों की अपेक्षा मानस विवाह मुख्य हुआ करता है, जिसे हम प्रणयविवाह भी कह सकते हैं। सती स्त्री के लिए पर-पुरुष-बिषयक बात तक नहीं सुननी चाहिए / इसलिए दमयन्ती को दूती की बातें सुनना अनुचित ही लगा। 'मराय' 'नराय' में अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तस्मिन्विमृश्यैव वृते हृदैषा मैन्द्री दया मामनुतापिकाभूत् / निर्वातुकामं भवसंभवानां धीरं सुखानामवधीरणेव // 96 // अन्वयः-तस्मिन् हृदा विमृश्य एव वृते ( सति ) एषा ऐन्द्री दया निर्वातुकामम् धीरम् भव-सम्भवानाम् सुखानाम् अवधीरणा इव माम् अनुतापिका मा भूत् / ___टीका-तस्मिन् म] इन्द्र नले इत्यर्थः हवा हृदयेन विमुश्य विचार्य एब मया घृते कृतवरणे सति, सम्यक् विचारं कृत्वा, अयमेव मे वरण-योग्य इति मया मनसा निश्चयः कृत इत्यर्थः / एषा इयम् ऐन्द्री इन्द्रसम्बन्धिनी दया कृपा निर्वातुम् निर्वाणं मोक्षमिति यावत् कामः अभिलाष! यस्य तथाभूतम् (ब० वी 0 ) धोरम् विद्वांसम् भवे संसारे संभवा उत्पत्तिः (स० तत्पु०) येषां तथाभूतानाम् (ब० वी०) सांसारिकाणामित्यर्थः सुखानाम् सौख्यानाम् अवधारणा अवहेलना इव माम् दमयन्तीम् अनुतापिका अनुतापकरी, पश्चात्तापप्रयोजिकेति यावत् मा भूत् न भवति / मुक्त्यर्थं मनसा कृतनिश्चयस्य विदुषः समक्षं यथा सांसारिकभोगविलाससुखानि नगण्यानि भवन्ति, तद्वदेव मनसा मत्येन्द्रार्थं कृतनिश्चयायाः मम समक्षमपि अमर्येन्द्रः स्वर्गभोगश्च नगण्य एवेति भावः / / 96 // __व्याकरण-ऐन्द्री इन्द्रस्येयमिति इन्द्र + अण + ङीप् / निर्वातुकामम् 'तुम्काममनसोरपि' से तुमुन के म का लोप। भवः भवत्यस्मात् (प्राणिजातम् ) इति भू + अप ( अपादाने ) / संभवः सम् + भू + अप ( भावे ) / अवधारणा अवधीर् + युच् + टाप् / अनुतापिका अनु + तप् + णिच् + ण्वल भविष्यत् अक होने के कारण षष्ठी निषेध से 'माम्' को द्वि० /