________________ नैषधीयचरिते अनुवाद-इसलिए ( अपनी ) प्रसन्नता के लिए भी और ( पातिव्रत्य ) नियम पूर्ति के लिए भी मैं उन ( इन्द्र ) की ही पति-रूप में सेवा करूंगी। किन्तु थोड़ा सा अन्तर यह है कि इस लोक में भूपति होने के नाते अंशतः आये हुए अदेव-देहवाले अर्थात् मानुष इन्द्र ( नल) की सेवा करूंगी // 94 // टिप्पणी- दमयन्ती का अन्तर बडी बुद्धिमत्ता और तर्क-पूर्ण है। हर हालत में वह वर रही इन्द्र को ही है, भले ही वे दिव्य देह में हों या मानुष देह में / उसमें उसे बड़ी प्रसन्नता है, साथ ही उसका पातिव्रत्य धर्म भी निभ रहा है। विद्याधर के अनुसार 'अत्र हेतुरलंकारः' / 'देपि' 'देपि' में यमक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। अश्रौषमिन्द्रादरिणोगिरस्ते सतीव्रतातिप्रतिकूलतोवाः / स्वं प्रागहं प्रादिषि नामराय किं नाम तस्मै मनसा नराय // 95 / / अन्वयः-( हे दूति ! ) इन्द्रादरिणीः सती..........तीव्राः ते गिरः अश्रौषम् / अहम् स्वम् मनसा प्राक् अमराय न प्रादिषि किं नाम ? नराय तस्मै / टीका-(हे दूति ! ) इन्द्रे आदरः मानः आसु अस्तीति अथवा इन्द्रम् आद्रियन्ते इति तथोक्ताः ( उपपद तत्पु० ) इन्द्रस्तुतिपरा इत्यर्थः सत्याः पतिव्रतायाः व्रतम् नियमः तस्य अतिप्रतिकूला: अतिविरुद्धा ( उभयत्र प० तत्पु० ) अतिशयेन प्रतिकूला अतिप्रतिकूलाः (प्रादि तत्पु० ) अतः एव तीवा दुःश्रवाश्च ( कर्मधा० अथवा द्वन्द्व ) ते तव गिरः वाणी: अश्रौषम् श्रुतवती / अहम स्वम् आत्मानम् मनसा हृदयेन प्राक पूर्वम् अमराय देवाय इन्द्राय न प्रादिषि नप्रदत्तवती, कि नाम किं तर्हि ? नराय मनुष्याय तस्मै इन्द्राय क्षितीन्द्रत्वेन इन्द्रांशमादाय गृहीतमानुषदेहाय नलायेत्यर्थः / नृपतिः लोकपालांशमादाय वपुर्धारयतीति पूर्वमवोचाम // 95 // व्याकरण ----अशोषम् /श्रु + लुङ् उ० प्र० / प्रतिलोम प्रतिगतं लोमेति प्रति + लोम / प्रादिषि प्र + दा + लुङ् उत्तम पु० / अमरः म्रियते इति /मृ + अच् ( कर्तरि ) मरः, न मरः इत्यमरः / ___अनुवाद–इन्द्र के प्रति आदर दिखाने वाली, पातिव्रत्य धर्म के बिलकुल विरुद्ध ( अतएव ) तीव्र सुनने के अयोग्य तेरी बाते मैंने सुनीं। मैं पहले अपने आपको मन से अमर्त्य ( इन्द्र ) को नहीं दे पाई / "फिर किसको ( दे पाई ? ) 'मयं इन्द्र को' // 95 //