________________ षष्ठः सर्गः 83 टोका-इन्द्रः शतेन शतसंख्यकैः मखैः यज्ञैः यत् पवम् इन्द्रत्वरूपं स्थानमित्यर्थः आप प्राप्तवान्, स इन्द्रः तस्मै पदाय ते तव याचने प्रार्थनायां विषये (10 तत्पु. ) चाटुकारः ( स० तत्पु० ) चाटूनि प्रियमधुरवचनानि करोतीति तथोक्तः ( उपपद तत्पु० ) अस्तीति शेषः अर्थात् तत्पदप्राप्त्यर्थ सचाटु त्वामर्थयते / त्वम् तस्मिन् इन्द्र प्रसादम अनुग्रहं कुरु विधेहि, तमनुगृह्य इन्द्राणीपदमवाप्नुहील्यर्थः / तत् ऐन्द्र पदम् स्वीकारं करोतीति स्वीकारकृत् ( उपपद तत्पु०) स्वीकारज्ञापकमित्यर्थः यत् भ्रनटनम् भूनर्तनम् भ्रूचालनमिति यावत् (कर्मधा०) भ्रुवोः नटनम् (10 तत्पु० ) तस्य श्रमेण प्रयासेन (10 तत्पु० ) अलंकुरुष्व शोभयस्व भ्रूचालनेन तदर्थं स्वीकृति देहीत्यर्थः // 82 // व्याकरण-चाटुकार: चाटु + /कृ + अण् ( कर्मणि)। प्रसादम् प्र+ सद् + घम् / स्वीकारकृत ०कृ + क्विप् , तुगागम / नटनम् नट् + ल्युट् ( भावे ) / अनुवाद-इन्द्र ने सौ यज्ञों द्वारा जो पद प्राप्त किया है, उसके लिए वे तुम्हारी याचना के विषय में चाटुकारिता ( खुशामद ) कर रहे हैं। तुम कृपा करो। उस ( ऐन्द्रपद ) को स्वीकृति रूप में भौंहें हिलाने का कष्ट करके शोभित करो // 82 // टिप्पणो-इन्द्र की दूती अपनी तरफ से दमयन्ती को फुसलाने में कोई भी कोर-कसर नहीं रख छोड़ रही हैं। कहती हैं कि तीनों लोकों में इतना महान् व्यक्ति तुम्हारी खुशामदें कर रहा है, तुम्हारा सेवक बनने को तय्यार हुआ बैठा है; उसका वरण करके तुम इन्द्राणी बनकर सारे स्वर्गलोक का आधिपत्य अपने हाथ में ले लोगी, अतः भौंह के इशारे मात्र से हाँ भर लो, बोलने का भी कष्ट न करो / विद्याधर यहाँ हेत्वलंकार कह रहे हैं। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है। मन्दाकिनीनन्दनयोविहारे देवे धवे देवरि माधवे च / श्रेयः श्रियां यातरि यच्च सख्यां तच्चेतसा भाविनि ! भावयस्व // 83 / / अन्वयः-हे भाविनि ! मन्दाकिनी-नन्दनयोः विहारे देवे धवे वा माधवे देवरि ( तथा.) यातरि सख्याम् श्रियाम् यत् श्रेयः, तत् चेतसा भावयस्व / टीका-हे भाविनि विचारशीले ! मन्दाकिनी स्वर्गङ्गा च नन्दनं एतदाख्यम इन्द्रोद्यानं चेति तयोर्मध्ये ( द्वन्द्व ) विहारे क्रीडायाम् देवे देवेन्द्र घवे भर्तरि वा