________________ नैषधीयचरिते व्याकर-उनावत्या / वच् + क्तवत् + डीप त० / नलाशाम ऋते व्याकरगानुसार 'अन्यारादितरते.' 2 / 3 / 19 से यहाँ पञ्चमी वभक्ति होनी चाहिए थी, किन्तु कभी-कभी विद्वान् लोग विकल्प में द्वितीया भी करते आ रहे हैं, देखिए गीता--'ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे' ( 11 / 32 ) तथा फलति पुरुषाराधनमृते' इत्यादि / अपुपूरत् / पूर् + णिच् + लुङ् / नारायण के अनुसार व्याकरण की दृष्टि से यहाँ 'अपूपुरत्' रूप बनाना चाहिए था, 'अपुपूरत् 'चिन्त्य है / 'अगतिक गति' में /पूर से घन ( भावे ) पूर बनाकर पूरं करोतीति (नामधातु ) णिच् कर लें। ___अनुवाद-इस प्रकार कहकर दूती द्वारा भेंट की हुई और दमयन्ती द्वारा इन्द्र के प्रसाद रूप में स्वीकृत पारिजात की माला सौरभ से नल की आशा (प्रत्याशा, तृष्णा) को छोड़ सभी आशाओं (दिशाओ) को पूर्ण कर बठी / / 86 // टिप्पणी-दमयन्ती द्वारा इन्द्र की पारिजात-माला आदर-भाव के साथ प्रहण किये जाने पर जहाँ दूती को यह आशा बंध गई कि वह इन्द्र-वरण स्वीकार कर लेगी, वहीं नल के हृदय की इन आशाओं पर एक दम पानी फिर गया कि वह मेरा वरण करेगी। यहाँ दो विभिन्न आशाओं का अभेदाध्यवसाय होने से भेदे अभेदातिशयोक्ति है, जिसके साथ 'ऋते पद-वाच्य बिनार्थ में बनने वाली विनोक्ति तथा स्रक पर प्रसादत्व के आरोप से रूपक का संकर है। यहाँ विद्याधर मौन हैं / 'लाशां' 'दाशाम' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। आर्य ! विचायोलमिहेति कापि योग्यं सखि ! स्यादिति काचनापि / ओंकार एवोत्तरमस्तु वस्तु मङ्गल्यमत्रेति च काप्यवोचत् // 87 // 'आर्ये / इह विचार्य अलम' (इति) का अपि अवोचत्; काचन अयि सखि ! इदम् ) योग्यम् स्यात्' ( इति अवोचत् ); का अपि 'अत्र ओंकार एब मङ्गल्यम् उत्तरम् वस्तु अस्तु' इत्यवोचत् / - टाका-आयें श्रेष्ठे। इह इन्द्रवरणविषये विचार्य अलम् अत्र विचारो न कर्तव्यः स वरणीय एवेत्यर्थः इति का अपि सखी अवोचत् अकथयत्; काचन कापि 'अयि सखि आलि ! इदम् इन्द्रवरणं योग्यम् उचितं स्यात्' इत्यवोचत्; का थपि 'अत्र इन्द्रवरणविषये ओंकारः स्वीकारः ( 'स्यादोमेवं परमं मते'