________________ षष्ठः सर्गः - टिप्पणी-कवि ने शारी का प्रयोग करके अच्छा चमत्कार दिखाया है / वैसे तो युवतियां चौसर खेल रही थीं। पांसा फेंकते समय कोई युवति सखी को कह बैठी कि शारी को मार दो। शारी से अभिप्राय उसका चौसर की गोटी से था, लेकिन शारी मैना को भी बोलते हैं। मैना इधर-उधर उड़ रही यह सुन बैठी कि मुझे मारने को कहा जा रहा है। भयभीत हुई बेचारी के कण्ठ से 'नहीं' 'नहीं' की करुणध्वनि निकल उठी। सामने नल ने सुना, तो साभिप्राय हँस गये। यहाँ हमारे विचार से भ्रान्तिमान् इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि शारी की भ्रान्ति वास्तविक है। विद्याधर भावोदयालंकार कहते हैं, क्योंकि शारी को भय का उदय हो रखा है / 'शारी शारी' 'कुत्थ कूत' में छेक, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। भैंमीसमीपे स निरीक्ष्य यत्र ताम्बूलजाम्बूनदहंस लक्ष्मीम् / कृतप्रियादूत्यमहोपकारमगलमोहद्रढिमानमूहे // 72 // अन्वयः-यत्र स भैमी-समीपे ताम्बूल.......लक्ष्मीम् निरीक्ष्य कृत ...... मानम् ऊहे। टीका-यत्र सभायाम् स नलः भैम्याः भीमपुत्र्याः दमयन्त्याः समीपे निकटे ताम्बूलाय ताम्बूलधारणायेति यावत् यः जाम्बूनद-हंसः (च. तत्पु०) जाम्बूनदस्य सुवर्णस्य हंसः (10 तत्पु० ) सुवर्णनिमित-हंसाकार-ताम्बूल-भाजनमित्यर्थः तस्य लक्ष्मीम् शोभाम् ( उभयत्र प. तत्पु० ) निरीक्ष्य विलोक्य कृतः प्रियाया: प्रेयस्या दमयन्याः दूत्यम् दूतत्वम् (10 तत्पु० ) एव महान् विपुलः उपकारः उपकृतिः ( उभयत्र कर्मधा० ) येन तथाभूतः (ब० वी० ) यो मराल: हंसः ( कर्मधा० ) तस्मिन् मोहस्य म्रमस्य ( स० तत्पु० ) द्रढिमानम् दृढंताम् (10 तत्पु० ) ऊहे उवाह / हंसाकारसुवर्णताम्बूलभाजने नलस्य 'एष प्रियतमायाः समीपे मे दूतः सुवर्णहंसः' इति भ्रान्तिरभूदिति भावः / / 72 // व्याकरण -जाम्बूनदम् जम्बूनदस्येदमिति जम्बूनद + अण् / सुमेरु के पास से बहने वाला स्बणिल नद जम्बूनद कहा जाता है। दूत्यम् दूतस्य कर्मेति दूत + यत् ( वैदिक प्रयोग)। दढिमानम् दृढस्य भाव इति दृढ + इमनिच, ऋ को र / ऊहे / वह + लिट् ( आत्मने० ) / अनुवाद-दमयन्ती के समीप सोने का हंसाकृति बाला पानदान देखकर उन ( नल ) को उसपर प्रिया के प्रति दूत के रूप में ( उनका ) महान् उपकार करने वाले हंस का पक्का भ्रम हो उठा // 72 //