________________ 76 नैषधीयचरिते अन्वयः-कृतकाकुयात्राः हुताश' दूती: निराकरिष्णोः भैम्या वचोभिः स दूरम् अपि प्रयाताम् तदाशाम् न्यवर्तयत् / ____टीका-कृताः विहिताः काकु--याच्याः ( कर्मधा० ) काकुः कण्ठध्वनिविशेषः तयुक्ताः दैन्यस्वरबिशिष्टा इति यावत् याच्याः प्रार्थना ( मध्यमपदलोपी स०) याभिः तथाभूताः ( ब० बी० ) हुताश: अग्निश्च कोनाश: यमश्च ('प्रेतपतिः पितृपतिश्च कीनाशः' / इति हलायुधः' ! जलेशः वरुणश्चेति जलेशाः (द्वन्द्व ) तेषां दूतीः संदेशहरी: (10 तत्प०) निराकरिष्णोः निराकुर्वत्याः भैम्याः दमयन्त्याः वचोभि: वचनैः स नल: दूरम् अपि प्रयाताम् दूरोपेताम् क्षीणामपीति यावत् तस्याः दमयन्त्याः आशाम् प्राप्तिप्रत्याशाम् (10 तत्पु०) न्यवर्तयत् प्रत्यावर्तितवान् , अग्न्यादि-दूती-प्रार्थनामनाद्रियमाणां दमयन्तीं दृष्ट्वा नलस्य नले तद्विषये क्षीणापि आशा पुनर्जागरिता जातेति भावः / / 75 // व्याकरण-हुताशः अश्नातीति/अश + अच् ( कर्तरि० ) हुतस्य अशः / याचा याच + नङ् + टाप / निराकरिष्णुः निर् + आ + कृ + इष्णुच , 'न लोकाव्यय०' ( 2 / 3 / 69 ) से षष्ठी-निषेध होने पर द्वि० / न्यवर्तयत् नि + Vवृत् + णिच् + लङः / / अनुवाद ... काकू-भरी-दीनता-पूर्ण-प्रार्थनायें किये अग्नि, यम और वरुण की दूतियों को ठुकरा देने वाली दमयन्ती की बातों से वह ( नल) उसके विषय में दूर गयी हुयी भी अपनी आशा को फिर वापस ले आये / / 75 // टिप्पणी - नल इन्द्र की चालबाजी से दमयन्ती विषयक सारी आशा अपनी तरफ से छोड़ बैठे हैं किन्तु यह दमयन्ती है तो फिर आशा-सञ्चार कराने लगी है। पाठक देखेंगे कि कवि देवताओं की दूतियों की अवतारणा किये बिना ही एकदम अग्नि आदि की तरफ से उनकी प्रार्थनाओं को दमयन्ती द्वारा ठुकरवाकर सीधा इन्द्र की दूती हमारे सामने ला रहा है। यहाँ पर कथानक की कड़ी उखड़ी-पुखड़ी-सी लग रही है। छोटी-सी बात लेकर विस्तार में जाने वाले कवि का यहाँ इतना संक्षेप अखर रहा हैं। 'ताश' 'नाश' में पदान्त-गत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विज्ञप्तिमन्तःसभयः स भैम्या मध्येसभं वासवसम्भलीयाम् / संभालयामास भृशं कृशाशस्तदा लवृन्दैरभिनन्द्यमानाम् // 76 //