________________ नैषधीयचरिते वर्णानाम् रेखा (10 तत्पु० ) यस्मिन् तथाभु तम् ( ब० वी० ) तस्य एव गलसम्बन्धि एव नलस्य कृते इतियावत् स्वम् निजम् अनङ्गस्य कामस्य लेखम् पत्रम् प्रेम-पत्रमिति यावत् नखा: करजाः एव लेखिन्यः लेखनसाधनानि (कर्मधा० ) ताभिः लिलेख लिखितवती। सौवर्ण-केतकीषु दलमध्ये लेखः वर्णान् आलिख्य नलाय प्रेमपत्रमलिखदितिभावः // 63 // व्याकरण-भावुक-भवितुं शीलमस्यति /भ्र + उकन् / लेखः /लिख + घन / लेखिनो लिखतीति /लिख + णिन् + ङीप् / अनुवाद-जहां दमयन्ती सुनहरे केवड़े के फूल की पंखुडी के भीतरी भाग में नखों-रूपी कलम से उसी नल के हेतु अपना प्रेम-पत्र लिखती थी, जिसमें वर्ण रेखायें क्षणभर में ही स्याही से लिखी ( जैसी ) हो जाती थीं // 63 // टिप्पणी-केवड़े की पंखुड़ी में स्वभावतः यह देखने में आता है कि यदि उसे नाखूनों से खरोचो, तो उसमें काली-काली रेखायें पड़ जाती हैं। यदि अक्षर लिखो, तो वे काली स्याही से लिखे जैसे लगते हैं। इसलिए लिखने के लिए दमयन्ती को कागज और स्याही स्वतः मिल गए। नाखून कलम का काम दे गये। झट पट प्रेम-पत्र लिख दिया / विरहिणी स्त्रियाँ प्रियतम को प्रेमपत्र लिखा ही करती हैं। नाखूनों से अक्षर कुरेदने के पीछे कवि की यह ध्वनि निकलती है कि दमयन्ती नल द्वारा नखक्षतादि चाह रही है। नखों पर लेखिनीत्व के आरोप में रूपक है। 'लेखम्' 'लेखम्' में पादान्तगत अन्त्यानुप्रास के साथ यमक का एकवाचकानुप्रवेश संकर है, अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। विलेखितुं भीमभुवो लिपीषु सख्याऽतिविख्यातिभृतापि यत्र / अशाकि लीलाकमलं न पाणिरपारि कर्णोत्पलमक्षि नैव // 64 // अन्वयः-~-यत्र लिपीषु अतिख्यातिभृता अपि सख्या भीमभुवः लीला-कमलम् विलेखितुम् अशाकि, पाणिम् (तु विलेखितुम् ) न ( अशाकि; कर्णोत्पलम् ( विलेखितुम् ) अपारि, अक्षि ( तु विलेखितुम् ) न ( अपारि ) / टीका-- यत्र सभायाम् लिपोषु चित्रकर्मसु चित्रकलायामिति यावत् अतिशयिता ख्यातिः प्रसिद्धिः इति अतिख्यातिः (प्रादि तत्पु० ) ताम् विभर्ति धारयतीति तथोक्तया ( उपपद तत्पु० ) अत्यन्तप्रसिद्धयेति यावत् सख्या आल्या भीमः भूः उत्पत्तिस्थानम् ( कर्मधा० ) यस्याः तथाभूतायाः भैम्याः इत्यर्थः (ब० वी०)