________________ प्रथमः सर्गः। (कामपीड़ित होनेसे ) कृश नलने (मल्लिकाके समान पुष्पवाला ) करुणपक्ष जिसमें विकसित हो रहे हैं, ऐसे तथा भौरे मानो हुँकारी' मर रहे है, ऐसे उनके गुञ्जनों के द्वारा कोयलोंसे विरहियों की दशा को सुनते हुए वनमें नलको अधीरतासे ( अथवा-मनाइरसे) पुष्परूपी हाथको फैलायो हुई स्थलकमलिनीको देखा। [जिसमें करुणवृक्ष फूल रहे थे, कोयक मानो विरहियोंकी दशा कह रही थी तथा गूंजते हुए भ्रमर मानो 'हूँ-हूँ' कहकर 'हुंकारी' मर रहे थे; ऐसे वनमें ( तुम्हें ऐसा करना अनुचित है इस मावनासे मानो) पुष्परूपी हायको फैलायी हुई स्थलकमलिनीको कामपीड़ासे दुर्बल नलने देखा ) छोकमें मी किसीको अनुचित कार्य करते हुए देखकर दूसरा सज्जन व्यक्ति अनादरसे हाथ फैलाकर उसे निषेध करता है। वन में करुगवृक्ष विकसित हो रहे थे, कोयक कुहक रही थी, भ्रमर गूंज रहे थे तथा स्थल कमलिनी फूल रही थी, इन सबोंको कामपीड़ित नलने देखा ] // 88 // रसालसालः समदृश्यतामुना स्फुरद्विरेफारवरोषहुकृतिः / समीरलोलैर्मुकुलैर्वियोगिने जनाय दित्सन्निव तर्जनामियम् / / 1 // रसालेति। अमुना नलेन स्फुरन्तो द्विरेफास्तेषामारवो भ्रमरझकार एव रोषेण या हुकृतिहुंङ्कारो यस्य सः समीरलोलैर्वायुचलैर्मुकुलैरङ्गुलिभिरिति भावः। वियो. गिने जनाय तर्जनाभियं दिसन् दातुमिच्छशिव स्थितः, ददातः सन् प्रत्ययः 'सनिमीमेत्यादिना इसादेशः, 'भन लोपोऽभ्यासस्येत्यभ्यासलोपः, 'सस्यार्धधातुक' इति सकारस्य तकारः। रसालसालश्वतवृषः समदृश्यत सम्यग्दृष्टः। द्विरेफेत्यादिरूप. कोस्थापितेयं तर्जनामयजननोस्प्रेक्षेति सङ्करः // 89 // इस ( नल ) ने भ्रमण करते हुए भ्रमरों के समन्ततः गुञ्जनरूपी हुकारवाले आमके पेड़को वायुसे चञ्चल मअरियों ( बोरों) द्वारा विरहिजनको डरवाता हुभा-सा देखा। [ आम के पेड़पर बोरें लग गयी थीं, वे वायुसे धीरे धीरे हिल रही थीं, उनपर मौरे उड़ते हुए गूंज रहे थे, जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था कि यह आमका पेड़ भौरों के गुअनरूपी हुकारोंसे मअरीरूपी हाथको हिला हिलाकर विरहियों को तर्जित कर ( डरा) दिने दिने त्वं तनुरेधि रेऽधिकं पुनः पुनर्मूर्छ च मृत्युमृच्छ च | इतीव पान्थं शपतः पिकान द्विजान सखेदमैक्षिष्ट स लोहितेक्षणान् ||10|| दिने दिने इति / रे इति हीनसम्बोधने / त्वं दिने दिने अधिकं तनु एधि अधिक कृशो भव, अस्तेर्लोट सिप'इझलभ्यो हेर्धिरिति धिरवम् , वसोरेद्धावभ्यासलोपश्च' इति एवम् , पुनः पुनः मूर्च्छ च मृत्यु मरणमृच्छ च इति पान्थं नित्यपथिकं शपतः शपमानानिव स्थितानित्युत्प्रेक्षा, लोहितेक्षणान् रक्तदृष्टीन् एकत्र स्वभावतोऽन्यत्र रोषाच्चेति द्वष्टम्यम् , पिकान् कोकिलान् द्विजान् पक्षिणो ब्राह्मणांश्व ल नलः सखेव. मैशिष्ट। स्वस्यापि उक्तशङ्कयेति भावः // 90 //