________________ - चतुर्थः सर्गः .. 221 की निन्दा और राहुकी प्रशंसा करनेवाली बह ( दमयन्ती) रोती हुई सखीसे बोली (यहाँसे श्लो० 99 तक दमयन्तीका कथन है )- [विरहावस्थामें चन्द्रमाके अत्यन्त सन्ताप देनेके कारण उसकी निन्दा और उसको ( चन्द्रग्रहण के अवसरपर ) निगलनेवाले राहुकी प्रशंसा बिरहिणी दमयन्ती करती थी तथा उसकी कष्टावस्था देखकर उसकी सखी रो रही थी ] // 43 // . 'नरसुराब्जभुवामिव यावता भवति यस्य युगं यदनेहसा / . विरहिणामपि तद्रतववक्षणमितं न कथं गणितागमे // 44 // नरेति / नरसुरान्नभुवा मनुष्यदेवब्रह्मणामिय, यावता अनेहसा कालेन, यस्य जन्तोर्ययुगं भवति, गणितागमे ज्योतिश्शाने तरसव बळग्यमेवेति शेषः। यथाप्राणी दिनं देवादीनां युगादिकमित्युक्सम, तद्वदन्यस्यापि गणितशाले वक्तग्यमिति भावः। __ततः किमित्याशक्य आह / ताह, विरहिणां तयुगं कथं किमिति रतवतामवियुक्तानां यूनां चणेन मितं गणितं न / अवियुक्तानां पणो वियुकानां युगमिति किमिति नोकमित्यर्थः। तथा तस्या एकैकक्षण एकैकयुगकल्पोऽभूदित्यर्थः // 44 // ___जितने समयका मनुष्यों, देशों तथा ब्रह्माका युग-परिमाण होता है। मनुष्यों, देवों तथा ब्रह्माके युगके बराबर उन्हीं के समान सुरतक्रीडा युक्त तरुण स्त्री-पुरुषोंके तथा विरही खो-पुरुषों के क्षणकी गणना ज्योति शास्त्र में क्यों नहीं की गयो है ! अर्थात इसमें इतनी श्रुटि रह गयी है। [ मरतक्रीडायुक्त तरुण स्त्री-पुरुषों के क्षणके बराबर मनुष्य, देव तथा ब्रह्माका युग होता है अर्थात सुरतानन्द में मासक्त तरुण स्त्री-पुरुषों को मनुष्यों, देवों या ब्रह्माका युगके बराबर समय भी एक क्षणके समान प्रतीत होता है और इसके प्रतिकूल विरही तरुण स्त्री-पुरुषोंका क्षण मो मनुष्यादिके युगके बराबर होता है अर्थात इन विरहियों को एक क्षण भी व्यतीत करना मनुष्यादिके युगपरिमित काल के समान अत्यधिक मालूम पड़ता है // विरहिणी तरुणी दमयन्तीको भी एक एक क्षण मनुष्य, देव, ब्रह्माके युगके समान प्रतीत हो रहा था] // 44 // .. जनुरधत्त सती स्मरतापिता हिमवतो न तु तन्महिमाहता। ज्वलति फालतले लिखितः सतीविरह एव हरस्य न लोचनम् // 4 // जनुरिति / सती भवपूर्वपत्नी कन्या, स्मरतापिता विरहाग्नितप्ता सती, हिमा बतो जनुर्जन्माषत / तस्य हिमवतो महिमा आहतो यया सा तन्महिमाता, भार. ततन्महिमा सती तु न / भाहिताग्न्यादित्वानिष्ठायाः परनिपातः। विरहतापशान्त्यर्थ हिमाद्वेर्जाता। न त, तत्तपरसामर्थ्यानुरोधादित्युत्प्रेला। हरस्य फालतले सिसितो ब्रह्मणा लिखितः सतीविरह एष ज्वळति, लोचनं नेस्यारोप्यापहवालदार // 5 // सती ( दक्षप्रजापत्ति की कन्या-पूर्वजन्म में शङ्करजी का स्त्री) ने कामदेव से सम्तप्त होकर ही ( अतिशय शीतल ) हिमालय पर्वतसे उत्पन्न हुई है, उन (हिमालय पर्वत ) की महिमाके आदरसे नहीं। जलते हुए शिव-लकारमें (ब्रह्माके द्वारा सतो;विरह ही दिखा