________________ 242 नैषधमहाकाव्यम् / मलिन मुझ जैसी (विरहिणी ) को पीडित करते हुए घूमते हो [ मरने के बाद पापसे प्रेतरूप नीच योनिको प्राप्त जीव स्त्री बालक आदि मलिन लोगों के शरीरमें प्रवेशकर उन्हें पीडित तथा उनके शरीरको कम्पित करते हैं // तुम मरनेपर भी मुझ-जैसी दुखित अबलाओंको पीडित करते हो अतः महादुष्ट हो ] / / 83 // बत ददासि न मृत्युमपि स्मर ! स्खलति ते कृपया न धनुः करात् / अथ मृतोऽसि! मृतेन च मुच्यते न किल मुष्टिरुरीकृतबन्धनः / / 84 // बतेति / हे स्मर ! मृत्युमपि न ददासि / तेन दुःखान्तो भवेदिति भावः / अथवा कृपया ते कराद्धनुरपि न स्खलति न भ्रश्यति / पूर्ववनावः / अथ मृतोऽसि / तथापि न स्खलतीत्याह-मृतेन च मृतेनापि, उरीकृतबन्धनः अङ्गीकृतबन्धनः हतबद्ध इत्यर्थः / 'उर्यनाथ यररीभ्यश्च करोति कुरुते परः' इति भट्टमः। मुष्टिर्न मुच्यते खलु / बतेति खेदे / ततः कृतान्तादपि करोऽसीति भावः // 84 // हे स्मर ! तुम ( मुझ दुखिया अबलापर कृपाकर ) मृत्युको भी नहीं देते हो ( जिससे मेरा दुःख छूट जाय ) कष्ट है / कृपा से ( पक्षा०-अकूपाते ) तुम्हारे हाथसे धनुष भी नहीं गिर जाता ( जिससे तुम्हारा निरन्तर बाण-प्रहार पीडित करना असम्भव हो जाता), खेद है / अथवा तुम मर गये हो ( अतः ) मरा हुआ वाँधी हुए मुट्ठीको नहीं खोलता है। ( यही कारण है कि मरने के पहले जो तुमने धनुष लेकर मुट्ठी बांध ली है, वह मरने के बाद नहीं खुलती है / अन्य मी व्यक्ति यदि मुट्ठो बांधे मर जाता है, तब उसकी मुट्ठी प्रत्येक अङ्गके काष्ठवत् हो बानेसे नहीं खुलती। और जब जीते जी तुम मुट्ठी खोलकर कृपा नहीं करते तब मरने पर कहांतक कृपा करोगे ? अतः धनुष कैसे गिरे ? अन्य कृपण व्यक्ति भी जो जीते जो मुक्तहस्त होकर दान देने की कृपा नहीं करता, वह मरनेपर कहाँ तक मुक्त. हस्त होकर दान देने की कृपा करेगा ? अर्थात् कदापि नहीं करेगा ] // 84 // दृगपहत्यपमृत्युविरूपताः शमयते परनिर्जरसेविता / अतिशयान्ध्यवपुः क्षतिपाण्डुताः स्मर ! भवन्ति भवन्तमुपासितः / / दृगिति / हे स्मर ! परनिर्जरसेविता त्वत्तोऽन्यदेवतासेवको जनः तृच। शो रूप हतिः माध्यम, अपमृत्युरकालमरणं, विरूपता अङ्गवैवर्ण्यञ्च, शमयते निवर्तयति / 'णिचश्च' इत्यात्मनेपदम् / मियाद्धस्वत्वम् / भवन्तमुपासितः स्वरसेविनो जनस्य तु / तापछील्ये तृन् / 'न लोक'-इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / भतिशये नाभ्यं दृष्ट प. घातः, वपुःषतिः शरीरबिपत्तिः पाण्डुता वैवयंच, ता भवन्तीति देवतान्तरमकस्य उकदोषशान्तिः फलं, स्वद्भक्तस्य तदुद्रेक इत्यहो भक्तवारसक्यं कामदेवस्येत्युप. हासः। अनानोत्पत्तिलक्षणो विषमालङ्कारभेदः // 85 // हे कामदेव ! तुमसे भिन्न (सूर्य आदि) देवताओंकी सेवा (आराधना ) करनेवालेकी दृष्टिनाश (कम दीखना या अन्धापन ), अकालमृत्यु और विरूपता (शरीरको वि.