________________ 544 नैषधमहाकाव्यम् / पुरः पूर्वमनपा निम्रपा सती तं नलमभिमुखं यथा तथा उच इति यत् तेनैव हेतुना हियो महादे महति लजाद इत्यर्थः / घटस्य रूपमितिवत् कथचि दनिर्देशः। ममज्ज मन्ना // 141 // इसके बाद लज्जित विदर्भराजकुमारी ( दमयन्ती) नलसे अधिक नहीं बोल सकी, क्योंकि उस नलके आगे लज्जारहित होकर (नलका परिचय नहीं होनेसे ) सङ्कोचको छोड़कर जिस कारणसे बोली, उस कारणसे ही लज्जाके महारुद ( विशाल तडाग ) में अर्थात् लज्जारूपी महातडागमें डूब गयी। [ पुरुषका यथार्थ परिचय नहीं रहनेपर पहले बहुत बढ़-चढ़कर उससे बातें करना और बादमें परिचय होते ही अत्यन्त लज्जित होना त्रियों का स्वभाव होनेसे दमयन्तीका भी अत्यन्त लज्जित होना उचित ही है ] // 141 / / यदापवार्यापि न दातमुत्तरं शशाक सख्याः श्रवसि प्रियाय सा / विहस्य सख्येव तमब्रवीत्ता हियाधुना मौनधना भवप्रिया / / 142 / / यदेति / सा भैमी, यदा अपवार्य व्यवधायापि सख्याः श्रवसि श्रोत्रे प्रियायोत्तरं दातुं न शशाक तदा सख्येव विहस्य तं नलमब्रवीत् / किमिति अधुना भवप्रिया भैमी ह्रिया मौनधना बद्धमौना, न तु वैराग्याद्वेषाद्वेति भावः // 142 // जब वह ( दमयन्ती ) कोई आड़ करके ( पर्दा करके या कुछ मुखको तिर्छा करके अर्थात् नलकी दृष्टि से छिपाकर ) भी सखीके कान में नलका उत्तर नहीं कह सकी; तब हंसकर सखीने ही कहा कि-"आपकी प्रिया इस समय लज्जासे मौनधना [ मौन ही है धन जिसका ऐसी अर्थात् मौन धारण करनेवाली ( लज्जासे चुप ) हो गयी है ] // 142 // पदातिथेयांल्लिखितस्य ते स्वयं वितन्वती लोचनानमरानियम् / जगाद यां सैव मुखान्मम त्वया प्रसनबाणोपनिषनिशम्यताम् / / 143 / / ___ पदेति / इयं भवप्रिया लिखितस्य चित्रगतस्य ते पदयोरातिथेयानतिथिषु साधून् पाद्यभूतानित्यर्थः / “पथ्यतिथिवसतिस्वपतेढा"। लोचननिर्झरान् बाप्पा पूरान् वितन्वती यां प्रसूनबाणोपनिषदं कामरहस्यं जगाद त्वंदागमात् प्रागिति शेषः / सैव प्रसूनबाणोपनिषन्मम मुखात् त्वया स्वयं निशम्यतां श्रयताम् // 143 // अविरल बहते हुए आंसुओंको (चित्रादिमें ) लिखे गये आपके चरणोंका आतिथव ( अतिथिके विषयमें सद्व्यवहारी ) बनाती हुई अर्थात् चित्रादिमें लिखित आपके चरणों में गिरकर बहुत रोती हुई इस दमयन्ती ने जिस (कामोपनिषद् अर्थात् कामविषयक सत्यवचन) को कहा है, उसी कामोपनिषद को मेरे मुखसे सुनिये-[ में स्वकपोलकल्पित कुछ नहीं कर रही हूं, जो कुछ कह रही हूं, वह उपनिषदचनके समान सत्य वचन है; अतः उसे आपको सुनना और उसपर विश्वास करना चाहिये ] // 143 // असंशयं स त्वयि हंस एव मां शशंस न त्वद्विरहाप्तसंशयाम् / क चन्द्रवंशस्य वतंस ! मद्वधान्नृशंसता संभविनी भवारशे / / 144 / /